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पार्श्वनाथचरित में राजनीति और शासन व्यवस्था
[D] श्री जयकुमार जंत
वह कलाओं से सम्पन्न था। धर्माराधना के साथ ही काम एवं पथं पुरुषार्थ का भौ भोग करता था। वह धनधान्यसम्पन्न, गुणवान् तथा कठोर दण्ड का धारक था, दानी था । वह समदर्शी था, परन्तु उन्नत पुरुषों में अधिक सहानुभूति रखता था । इसी प्रकार अन्य राजाओं के प्रसंग में भी उक्त गुणों का वर्णन किया गया है । २. राजा के कर्तव्य
पार्श्वनाथचरितवादिराजसूरि का एक महाकाव्य है । यह राजनीतिशास्त्र नहीं है । यद्यपि इसमे राजनीति मोर शासन-म्पवस्था का क्रमबद्ध वर्णन नही हुमा है, तथापि प्रान्तरिक धनुशीलन से तात्कालिक छिटपुट राजनीतिक स्थिति और शासनव्यवस्था का प्राभास मिल जाता है ।
किसी भी देवा में पातिव्यवस्था के लिए राज्य संस्थापना भोर उसके संचालन की आवश्यकता होती है । समान्यतः राज्यसंचालन की दो प्रमुख पद्धतियां है-१. राजतन्ज्ञ, मोर २. प्रजातन्त्र वैदिक काल से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व के कुछ समय को छोड़कर हमारे देश में राजतंत्रीय शासन पद्धति ही रही है। पार्श्वनाथचरित के प्रणयर' के समय राजतंत्र ही था पादवनाथ चरित के मान्तरिक विश्लेषण से निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते है:
१. राजा
रजा (राजन) शब्द का शाब्दिक अर्थ 'शासक' होता है। लेटिन मे राजा के लिए रेक्स' (Rex) शब्द का प्रयोग हुआ है। यह भी उसी अर्थ का द्योतक है। भारतीय परम्परा मे राजा की एक विशिष्ट व्याख्या की गई है। शासक को राजा कहने का प्रयोजन यह है कि यह प्रजा का धनुरंजन करता है। पालि साहित्य मे भी राजा की यही सैद्धान्तिक व्याख्या उपलब्ध होती है ।
पार्श्वनाथ चरित के अनुशीलन से पता चलता है कि राजा अरविन्द मे रक्त सैद्धान्तिक व्यास्या पूर्णरूपेण घटित होती है। वह प्रजा का सदैव ध्यान रखता है । राजा अरविन्द बड़ा तेजस्वी था। अपने तेज के कारण उसने अखिल विमल पर विजय प्राप्त कर ली थी।
१. पार्श्वनाथचरित का रचनाकाल ई० सन् १०२५ है । २. 'राजा प्रकृतिरञ्जनात्। रघुवंश, ५.१२
३. दमेन परे जेतीति यो बासि राजा । -- दीपनि
काय, खण्ड ३, पृ० १३ ।
४. पार्श्वनाथ चरित १.६४-७८
५. महाभारत, शांतिपर्व ५६. १२५ ।
प्रजा का अनुरंजन करना ही राजा का मुख्य कर्तव्य है। महाभारत मे भीष्म ने युधिष्ठिर को इसलिए राजा कहा है, क्योंकि वह समस्त प्रजा को प्रसन्न रखता था । राजा अरविन्द भी प्रजानुरंजक था। उसने अनी भुजाओं से प्रजा को दुखरूपी कूप से निकाला' को पराक्रम दिखाना, अपराधियों को कठोर दण्ड देना तथा सज्जनो की रक्षा करना राजा का घमं बताया गया है।" राजा अरविन्द में उक्त सभी गुण दिखाई पड़ते है ।" ३. राजा का उत्तराधिकार
राजा का उत्तराधिकारी प्रायः उसका ज्येष्ठ पुत्र ही होता था। यही राजसत्र की मर्यादा रही है। पार्श्वनाथ चरित में भी प्ररविन्द एवं अन्य सभी राजाओंों के उत्तराधिकारी उनके ज्येष्ठ पुत्र ही हुए हैं। ४. मंत्री
राजतत्र मे राजा सर्वोच्च सत्ता है, किन्तु किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय के पूर्व राजा मंत्रियों से सलाह जरूर लेता है। शुक्रनीति मे कहा गया है कि राजा चाहे समस्त विद्याओं में कितना ही दक्ष क्यों न हो, फिर भी उसे बिना मंत्रियों की सहायता के राज्य के किसी भी विषय पर विचार नहीं करा चाहिए।"
६. पार्श नाथचरित, १.७७
७. नीतिवाक्यामृत ५.२ ६.३८
१. बही ३.५८
८. पार्श्वनाथ चरित, १.६४, १.७० १०. सर्वविधासु कुशली नृपो ापि सुमंत्रवित् । मंत्रिभिस्तु विना मंत्र कोऽयं चिन्तयेत् क्वचित् ॥ - सुनीतिसार, २.२