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________________ मुख्तार श्रीकी बहुमुखी प्रतिभा मयं मूल में 'पाप का खण्डन करने वाला (साधु)' रहा में परिचय करा देना चाहता हूं। यह भाष्य उन्होने लगभग है। पर बाद में वह 'पूर्त' या 'ढोगी' अर्थ में रूढ हो गया। ८५.८६ वर्ष की अवस्था मे लिखा है। उसके पढ़ने से मनु. प्रब यदि उसके उपर्यत माशय को न लेकर वर्तमान म मान किया जा सकता है कि इस वृद्धावस्था मे भी-उब प्रचलित 'धृतं' अर्थ को ले लिया जाय तो प्रकृत श्लोक का कि बहुतो की वृद्धि व इन्द्रियां काम नहीं करतीं-- उनकी पर्थ ही प्रसगत हो जाता है। कारण कि वहां पाखण्डियों ग्रहण-धारण शक्ति कितनी प्रबल रही है । के पादर-सत्कार को पाखण्डिमूढ़ना-जो पाखण्डी रही है इसकी प्रस्तावना (पृ० १७-१६) में उन्होने ग्रन्थ के उहें पाखण्डी समझ लेना-~बतलाया है । अब यदि पाखडी 'योगसार-प्राभत' इस नाम की सार्थकता को प्रकट करते का अर्थ 'धतं' ग्रहण कर लिया जाता है तो उसका अभि• हए बतलाया है कि यह नाम योग, सार और प्राभत इन प्राय यह होगा कि जो वास्तव मे घूर्त नहीं है, उन्हे धूर्त तीन शब्दो के योग से निष्पन्न हना है । इनमे योग शब्दके मानकर उनका धर्ती जमा प्रादर-सत्कार करना, इसका अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए नियमशार (गा० १३७-३६) नाम पाखण्डिमुढना है। यह अर्थ प्रकृत में कितना के प्राचार में नजला, के प्राधार से बतलाया है कि प्रात्मा को गगादि के परिप्रसगत व विपरीत हो जाता है यह ध्यान देने के योग्य त्याग और ममस्त मकल्प-विकल्पो के अभाव मे जोड़नाहै और जब उसका यथार्थ अर्थ 'पाप का खण्डन करने उससे सयुक्त करना, इसका नाम योग है। साथ ही विपवाला समीचीन साधू' किया जाना है तब वह प्रकृत में संगतीत अभिप्राय को छोडकर जिनोपदिष्ट तत्वों मे अात्मा होता है जो प्रथकार को प्रभीष्ट भी रहा है । यथा-- को सयुक्त करना, यह भी योग कहलाता है। योग शब्द का "जो परिग्रह, प्रारम्भ और हिमा में निरत है तथा यह अर्थ 'उनकि प्रात्मानिमिति योगः' इम निरुक्ति के अन्भ्रमण कराने वाले कुस्मित क.यं रूप पावत - जल का सार किया गया है। इसका फलितार्थ यह हया कि रागादि जसने रूप भंवर --मे फसे हा हे, ऐस बेषधारी के साथ समस्त सका विकल्पो को छोड़कर तस्वविचार मे साधनो को यथार्थ साधु समझकर उनका यथार्थ साधुग्रा के सलग्न होना, इस प्रकार की प्रशस्त ध्यातरूप प्रवृत्ति का समान आदर-सत्कार करना, इसका नाम पाखण्डिमूढ़ता- नाम योग है। पसक यथार्थ साधूविषयक प्रज्ञान- है'।" दसरा जो सार शब्द है, उसका अर्थ विपपीतता का इससे पाठक समझ सकते हैं कि श्रद्धेय मुख्तार साहब परिहार-यथार्थता - है (नि० सा० ३)। इस प्रकार लस्पर्शी मध्येता थे । विवक्षित ग्रथ की व्याख्या के 'योगसार' का अर्थ हुप्रा - विपरीतता से रहित योग का म हीने उसके समक्ष अन्य अनेक ग्रयो का गम्भी- यथार्थ स्वरूप । इसके अतिरिक्त श्रेष्ठ, स्थिराश, सत् और पण अध्ययन किया है। इस स वे व्याख्येय ग्रथो में नवनीत, इन प्रों में भी उक्त सार यात्रा का प्रयोग देखा नातलनात्मक रूप से अन्य कितने ही प्रथा के उद्धरण जाता है। तदनुनार 'योगसार' का अर्थ 'योगविषयक दे सके है। साथ ही उन्होन महत्वपूर्ण प्रस्तावनामो में भी कथन का नवनीत' ममझना चाहिए। जिस प्रकार दही को इस ममको उद्घाटित किया है। पर्याप्त चिन्तन के साथ बिलोकर उसके सारमन अश नवनीत को निकाल लिया ही उन्होंने विवक्षित इलोक आदि की व्याख्या की है। ग्रथ जाता है, उमी प्रकार अनेक योगविषयक प्रथो का मंथन के मर्म को प्रस्फुटित करने के लिए जहा जिगना प्रावश्यक करके उनका सागशम्प प्रकृत योगमार ग्रंथ है। था उतना ही उन्होंने लिखा है -अनावश्यक या ग्रंथ के तीसरा शब्द प्राभूत है, जिसका अर्थ 'भेट' होता है। बाह्य उन्होने कुछ भी नही लिख।। तदनुसार जिस प्रकार किसी राजा आदि के दर्शन के लिए __ मुख्तार सा० का यह कार्य इतना विस्तृत है कि उस जाने वाला व्यक्ति उसे भेंट करने के लिए कुछ न कुछ सारसबका परिचय कराना अशक्य है। यहा मैं केवल उनके भूत वस्तु ले जाता है, उसी प्रकार परमात्मारूप राजा का अन्तिम भाष्य-योगसार-प्राभूत की व्याख्या--का संक्षेप दर्शन करने के लिए भेटरूप यह ग्रंथकार का प्रकृत ग्रंथ है। २. देखिए समीचीन-धर्मशास्त्र मूल पृ. ५६ और प्रस्तावना पृ० ६-११ ।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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