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________________ सात तत्त्व 10 श्री बाबूलाल जैन, दिल्ली ससार मे हमें क्या-क्या जानना जरूरी है ? जमे मोक्ष-प्रात्मा का कर्मों मे छुट जाना-अनन्त सुख । बीमार प्रादमी को यह जानना जरूरी है कि मेरे रोग किम इनको भी दो प्रकार से ममझना है, एक द्रव्य रूप कारण से हुअा है, अब रोग मिटने का क्या उणय है और और दूसरा भाव रू.प। ज्ञानावरणादि कर्मों का पाना द्रव्य रोग होने से मेरी क्या दशा हई है और निरोग होने पर प्राश्रव और प्रात्मा के व परिणाम जिनकी बजह से मैं कैसा हो जाऊँगा? इसी प्रकार, व्यक्ति को यह जानवरणादि कर्म पाते है, उन परिणामो को भाव प्राश्रय जानना जरूरी है कि मैं कौन हूँ, मेरी ऐसी दशा क्यों हुई कहते है। असल में जीव का पुरुषार्थ प्रत्यक्ष (डाइरेक्ट) है और यह दशा कैसे मिट सकती है, फिर मैं कैसा हो रूप में कर्मों के माथ नही है परन्तु हम तो अपने परि. जाऊंगा; अथवा यों कहना चाहिए दुःख का कारण पोर णामों में पुरुषार्थ करते है जिससे कर्म प्राने बन्द हो जाते सुख का कारण क्या है यह जानना जरूरी हैं । इस बात को है । इसलिये उन परिणामो की पहचान होना जरूरी है हम भिन्न रूप से भी रख सकते है। मैं कौन हूं--जीव हूं, जो कर्म के आने के कारण है और जिन परिणामो को मेरे साथ जिसका सम्बन्ध है, वह अजीव है--अजीव में भावाश्रव कहते है। यही बात अन्य के बारे में है। बन्ध जीवपने की मान्यता अथवा जीव में अजीवपने की मान्यता भी दो प्रकार का है-एक द्रव्य बन्ध और दूसरा भाव यह दुःख है-दुख का कारण प्राश्रव है और बन्ध है। बन्ध । द्रव्य बन्ध कर्मों का पाठ प्रकार का बन्ध है। भाव अजीव से भिन्न जीव का अपने रूप मे रहना मोक्ष है अथवा बन्ध प्रात्मा के वे परिणाम है जिनसे द्रव्य कर्म बन्ध को सुख है उस सुखका कारण संवर और निर्जरा है। तब यह प्राप्त हो जाते है । छोड़ना तो परिणामो को है इसलिए कि हमको (१) जीव, (२) अजीव, (३) प्राश्रव, (४) उन भावो को समझना जरूरी है जिनसे कर्म बन्धते है । बंध, (५) संवर, (६) निर्जरा और (७) मोक्ष इन सात । वे भाव कितने है ? यह बताया है कि (१) मिथ्यात्व तत्वो को जानना जरूरी है, क्योंकि जीव मैं हं, अजीव के रूप याने 'पर' में अपनापना मानना, अपने को 'पर' रूप साथ सम्बन्ध हो रहा है इसलिए जीव को जानना भी मानना अथवा अपने आप को नही पहचानना पथवा जैसी जरूरी है और अजीव को जानना भी जरूरी है। प्रात्मा वस्तु है उसको उम रूप न मानकर अन्यथा रूप मानना, से कर्मों का बन्ध हुमा है इसलिये दुःखी है। इसलिए यह एक मूल कारण है और इसका प्रभाव हुए बिना बाकी पाश्रव-बन्ध दुःख के कारण है। मोक्ष सुख रूप है के अन्य कारणों का प्रभाव नही हो सकता। अन्य कारण और संवर-निर्जरा सुख का कारण है । 'पर' मैं (२) अति, (३) कषाय और (४) योग है । इनमे प्रधान अपनापना मानना सो तो मोह और राग द्वेष का कारण मिथ्यात्व है। उसका प्रभाव होने पर बाकी के कारण जनक अर्थात् प्राश्रव-बन्ध है और ठोक इससे उल्टा याने जली जेवड़ी के माफिक रह जाते है। पहले इसी कारण निज में निजपना मानना यह प्रज्ञानता का अभाव है और के प्रभाव करने का वास्तविक पुरुषार्थ करना होता है । संबर और निर्जरा का कारण है। ऊपर-नीचे रक्खे हुए घडों में अगर पहले नम्बर का घड़ा पाश्रव-कर्म के आने का द्वार । सीधा हो जाता है तो बाकी तो अपने पाप सीधे हो जाते बन्ध-कर्म का मात्मा के साथ बन्ध जाना-दुख हैं। इसके बाद का कारण कषाय है । कषाय में प्रवत भी का कारण। पा जाता है और प्रमाद भी पा जाता है। मिथ्यात्व के संवर-कों को पाने से रोकने की डाट। गए बिना कषाय का प्रभाव नही हो सकता। निजरा-इकट्ठहुए कमा का नाश होना-सुख का यह समझना जरूरी है कि राग-द्वेष बंध के कारण कारण । हैं। जितने अंश में राग होगा उतने प्रश में बंध जरूर
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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