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४६, वर्ष ३०, कि०२
अनेकान्त
from which we learn that be was a minister पुंजराज की माता का नाम मक था जो कुटुम्ब भर to Gyasuddin khilji of Malwa (1449-1500 A. में अत्यधिक मादरणीय थी। पंजराज का जन्म मांड़ में D.) Punj Raj Seems to have carried on the ही हुमा था, इनकी जन्मतिथि का कोई उल्लेख नहीं administration very efficiently collecting round मिलता है। 'काव्यालकार शिशुप्रबोध' नामक ग्रंथ की him a band of learned admirer and indual- प्रशस्ति से प्रतीत होता है कि मफरल मलिक' की उपाधि ging in numerous acts of charity and relief. पुजराज को भी प्राप्त थी। ये भारगोत्रीय श्रीमाल The must have lived in the last qurter of the (बनिया) जाति के थे। हिन्दी के सर्वप्रथम श्रेष्ठ प्रात्म15th centuary. The also wrote a work an चरित 'मर्धकथानक' के रचयिता बनारसीदास भी इसी Alankar called 'शिशु प्रबोध' and another larger जाति के थे। work called of ध्वनि प्रदीप ।
पुंजराज बड़े दयालु ज्ञानवान् पराक्रमी एवं धनवान् ___ सारस्वत प्रक्रिया की टीका के अन्त में दी गई २५. थे। उनकी सभा सदा विद्वानों से भरी रहती थी। बडे२६ श्लोकों की विस्सत प्रशस्ति मे पजराज के पूर्वजों एवं बड़ मण्डलेश्वर राजा उनका सम्मान करते थे। वे विद्या उनके व्यक्तित्व का स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है। प्रस्तुत प्रेमी एव गुणग्राहक भी थे, वे नाट्यकला में भी प्रत्रीण प्रशस्ति में प्रजराज के पूर्वजों मे शाह देवपाल, सा. कोरा, ये। भिक्ष एव संकटकाल में तुलादान जैसे श्रेष्ठ उत्सव पोमा, गोवा एव वनीपक मादि सज्जनों का उल्लेख है। कराकर गरीबों व दुखियो की रक्षा किया करते थे। पुंजराज के पितामह वनीपक साह थे जिनकी पत्नी का कभी-कभी गरीबो के घर स्वय जाकर स्वर्णमुद्राओं से नाम पचो था। इनसे जीवन और मेष नाम के दो पुत्र भरे लड्डुमों का दान किया करते थे। उनके पराक्रम से उत्सन्न हुए थे। ये दोनो सोमसुन्दर मुरि के प्रति अत्यधिक भयभीत होकर शत्रु स्त्रियो की पाखे सदैव प्रश्रपूरित रहा अनुरागी थे, ऐमा मोहनलाल दलीच ने अपने ग्रन्थ 'जैन करती थी, इत्यादि उनके व्यक्तित्व एवं विशेषतामों साहित्य नो इतिहास" के पृष्ठ ५०१ पर लिखा है। जब की परिचायिका पूर्ण प्रशस्ति हम नीचे दे रहे है। पंजराज जीवन और मेध दोनो ही योग्य हुए तो माडू मे सुल्तान के पूर्वज जैन धर्मावलम्बी थे ऐसा 'जैन साहित्य नो इतिग्यासुद्दीन के मत्री बने, पर जीवन प्रारम्भ से ही वैरागी हाम" के पृ० ५०१ से प्रतीत होता है। प्रकृति के थे अतः अपना पद अपने छोटे भाई मेष को पुजराजकृत सारस्वत प्रक्रिया की टीका की प्रशस्तिसौपकर स्वयं सन्यासी बन गए थे, जैसा कि निम्न श्लोक
प्रादि भागसे स्पष्ट है -
प्रानन्दकनिधि देवमंतैराय तमोरविः । श्रीविलासमति मडपदुर्गे स्वामिनि खलिचीसाह ग्यासात्
दयानिलयिनं वदे वरदं द्विरदाननम् ॥११॥ प्राप्य मंत्री पदवी भवि याभ्यामजितोपाजित परोपकृतश्री,
वाग्देवतायाः चरणारविन्दमानन्दसान्द्रे हृदि सन्निधाय जीवनोभुवन पावनकोतिः मंत्रीभारमनुजे विनिवेश्य
श्रीपुंजराजो कुरुते मनोज्ञा सारस्वत व्याकरणस्य टीकाम्॥१२ ब्रह्मवित् स जगदीश्वर पूजको कौतुकेन समयं समनैषीत्।।
अन्त भाग
हिमालयादामलयाचलाया: सशोभयामासमही यशोभि.। निम्न श्लोक से स्पष्ट ज्ञात होता है कि साह जीवन
प्रासीन्नपालस्पृहणीय संपद साधु सदेपाल इति प्रसिद्धः ॥१ को ग्यासुद्दीन का अर्थ मंत्रित्व प्राप्त था। वे बड़े दानी,
अर्येषु वर्यः पराकार्यधुर्यः स्मर्यः सता पौरुष राजसूर्यः । ज्ञानी, ध्यानी एव सन्तोषी थे : -
तत्सुनुरौदार्य निधिर्बभूब काराभिधो दुहृद्धवार्य धर्यः ।।२।। नमदवनि समर्थस्तत्त्व विज्ञापनार्थः
तत्सेवितो ललित लक्षणकान्तमूर्तिराशा प्रभुदिनकरः सुजनविहिततोषः श्रीनिधिर्वीतदोषः
(रस्वीप्रसादनकरः) सदनकलानाम् । भवनिपति शरण्यात् प्रौढ़ धर्मार्थमत्री
जिवातकः कुवलयः प्रथितोपकारः पामाभिधान मफरल मलिकाख्यं श्री ग्यासादवापः ।।
उदयाय ततो नुसोमः ॥३॥