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नकला का उद्गम और उसकी प्रात्मा
जो अनन्त, अद्वितीय केवल ज्ञानगम्य सुख का अनुभव थे, प्रतः जनपदों से दूर पर्वतों के पाश्र्वभाग में या चोटियों करता है और ऐसे अनुभव से वह उसी प्रकार पवि वलित पर स्थित प्राकृतिक गुफाएँ उनके अस्थायी प्राश्रम तथा रहता है जिस प्रकार वायु-विहीन स्थान में प्रचंचल दोप- प्रावाम के उपयोग में पायी। यहाँ तक कि प्रारम्भ में शिखा। इससे ज्ञात होता है कि तीर्थंकर मूर्तियां उन निमित गुफाएँ स.दी थी और सल्लेखना धारण करने विजेतामों की प्रतिबिम्ब है जो, जिम्मर के शब्दो में, वालों के लिए उनमे पालिशदार प्रस्तर शय्याएं प्रायः वना लोकान मे सर्वोच्च स्थान पर स्थिर है और क्योकि दे दी जाती थी। तीसरी-चौथी शती ईसवी से, जनपयो से रागभाव से प्रतीत है प्रत: सभावना नही कि उस सर्वोच्च हटकर बने मन्दिरों या अधिष्ठानों में लगभग स्थायी रूप पौर प्रकाशमय स्थान से स्खलित होकर उनका सहयोग से रहने की प्रवृत्ति जैन साधुओं के एक बड़े समूह मे चल मानवीय गतिविधियों के इस मेघाच्छन्न वातावरण में प्रा पटो, इससे शंगोत्कीर्ण गुफा मन्दिरों के निर्माणको पड़ेगा । तीर्थ सेतु के कर्ता विश्व की घटनामो और जैविक प्रात्साहन मिला । जैसा कि स्मिथ ने लिखा है. इस धर्म समस्यपो से भी निलिप्त है, वे प्रतीन्द्रिय, निश्चय, सर्वज्ञ, की विविध व्यावहारिक मावश्यकतानों ने, निस्सदेह, निष्कम और शाश्वत शांत है। यह तो एक प्रादशं है विशेष कार्यो के लिए अपेक्षित भवनो को प्रभावित जिसकी उपासना की जाये, प्राप्ति की जाये । यह कोई किया । तथापि, जैन साधु अपने जीवन से सयम धर्म को देवता नही जिसे प्रसन्न किया जाये, तृप्त या सतुष्ट किया कभी मलग न कर सके। सम्भवतया यही कारण है कि जाये, तृप्त स्वभावतः इसी भावना से जैन कला पौर अजन्ता और एलोरा के युगों मे भी, थोड़ी संख्या मे ही स्थापत्य को विषय-वस्तु प्रोतप्रोत है।
जैन गुफामों का निर्माण हुमा, और पाचवी से बारहवी
शताब्दियो के मध्य ऐसे लगभग तीन दर्जन मात्र गुफा किन्तु, दूसरी पोर, इन्द्र प्रौर इद्राणी, तीर्थकरों के
मन्दिर ही निर्मित किये गये, वे भी केवल दिगम्बर माम्नाय अनुचर यक्ष प्रोर यक्षी, देवी सरस्वती, नवग्रह, क्षेत्रपाल
द्वारा, श्वेताम्बर साधुपो ने पहले हो जनपदों में या उनके और सामान्य भक्त नर-नारी,जन देव निकाय के अपेक्षा
समीप रहना प्रारम्भ कर दिया था। कृत कम महत्व के देवतामों या देवतुल्य मनुष्यो के मूर्तन मे, तीथंकरों और अतीत के अन्य सुविख्यात पुरुषो के
मन्दिर-स्थापत्य कला का विकास प्रत्यक्षतः मूर्ति पूजा जीवन चरित्र के दृश्यांकनों मे और विविध प्रलकरण
के परिणामस्वरूप हा जो जैनो से कम से कम इतिहास प्रतीकों के प्रयोग मे कलाकार किन्हीं कठोर सिद्धान्तो से
काल के प्रारम्भ से प्रचलित रही है। बौद्ध ग्रन्थों में बंधा न था, वरन् उसे अधिकतर स्वतत्रता थी। इसके अतिरिक्त भी, कलाकार को अपनी प्रतिभा के पदर्शन का
उल्लेख है कि वज्जि देश और वैशाली के महंत-चैत्यों का पर्याप्त अवसर था, प्राकृतिक दृश्यो तथा समकालीन
अस्तित्व था जो बुद्ध-पूर्व अर्थात महावीर-पूर्व काल से जीवन को धर्म निरपेक्ष गतिविधियों के शिल्पांकन या
विद्यमान थे, (तुलनीय महापरिनिवान-सुत्तन्त)। चौयी चित्रांकन द्वारा जो कभी-कभी विलक्षण बन पड़े, जिनसे शा इसा-पूर्व से हम जन मूतियों, गुफा-मन्दिरों और विपुल ज्ञातव्य तत्व प्राप्त होते है और जिनमे कलात्मक
निमित देवालयों या मन्दिरों के अस्तित्व प्रत्यक्ष मिलने सौदर्य समाया हमा है। पर, इन सबमे भी कलाकार को
लगते है। जैन धर्म की शुद्धाचार नीति को ध्यान में रखना था, इसीलिए उसे शृगार, अश्लीलता और अनैतिक दृश्यो की अपने मन्दिरों के निर्माण में जैनो ने विभिन्न क्षेत्रों अपेक्षा करनी पड़ी।
मौर कालों की प्रचलित शैलियों को तो अपनाया, किन्तु
उन्होंने अपनी स्वयं की सस्कृति और सिद्धान्तों की दृष्टि जहां तक स्थापत्य का प्रश्न है, प्रारम्भ में जैन साधु से कुछ लाक्षणिक विशेषतामों को भी प्रस्तुत किया जिनके क्योंकि अधिकतर वनों में रहते थे और भ्रमणशील होते कारण जैनकला को एक अलग ही स्वरूप मिल गया।