SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८, वर्ष ३०, कि० ३.४ भनेकान्त कुछ स्थानों पर उन्होंने समूचे 'मन्दिर-नगर' ही खड़े इसका प्रमाण मथुरा के कंकाली टीले के उत्खनन से प्राप्त कर दिये। हुआ है । वहाँ एक ऐसा स्तूप था जिसके विषय में ईसवी सन् के मारम्भ तक यह मान्यता थी उसका निर्माण मानवीय मूर्तियों के अतिरिक्त, अलंकारिक मूर्तियों सातवें तीर्थकर के समय में 'देवों' द्वारा हुमा था और के निर्माण में भी जैनों ने अपनी ही शैली अपनायी, और पुननिर्माण तेईसवें तीर्थकर के समय में किया गया था। स्थापत्य के क्षेत्र में अपनी विशेष रुचि के अनुरूप यह स्तूप कदाचित् मध्यकाल के प्रारम्भ तक विद्यमान स्तंभाधारित भवनों के निर्माण में उच्च कोटि का कौशल रहा। किन्तु, गुप्त-काल की समाप्ति के समय तक जैनों प्रदर्शित किया। इन में से कुछ कला-समृद्ध भवनों की की रुचि स्तप के निर्माण में नही रह गयी थी। विख्यात कला-मर्मज्ञों ने प्राचीन और भारम्भिक मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य की सुन्दरतम कृतियों में गणना एक बात और, जैसा कि लांगहर्ट का कहना है, की है। बहुत बार, उत्कीर्ण और तक्षित कलाकृतियों मे स्थापत्य पर वातावरण के प्रभाव का यथोचित्त महत्व मानव-तत्त्व इतना उभर पाया है कि विशाल, निर्ग्रन्थ समझते हुए हिन्दुनों की अपेक्षा जैनों ने अपने मन्दिरों के दिगम्बर जैन मूर्तियों में जो कठोर संयम साकार हो उठा निर्माण के लिए सदैव प्राकृतिक स्थान को ही चुना।' लगता है उसका प्रत्यावर्तन हो गया। कला कृतियों को उन्होने जिन अन्य ललित कलामों का उत्साहपूर्वक सृजन प्रधिकता और विविधता के कारण उत्तरकालीन जैन कला । किया उनमें सुनेखन, अलंकार, लघुचित्र पौर भित्तिचित्र, ने इस धर्म की भावनात्मकता को अभिव्यक्त किया है। संगीत और नत्य है। उन्होंने सैद्धांतिक पक्ष का भी ध्यान रखा और कला, स्थापत्य, सगीत एव छन्दशास्त्र पर जैन मन्दिरों भौर वसदियो के सामने, विशेषत: मूल्यवान् ग्रंथों की रचना की है। दक्षिण भारत में, स्वतंत्र खड़े स्तंभ जैनो का एक अन्य योगदान है। मानस्तंभ कहलाने वाला यह स्तंभ उस स्तंभ कहने की आवश्यकता नही कि जैन कला और का प्रतीक है जो तीर्थकर के समवशरण (सभागार) के स्थापत्य में जैन और जैन संस्कृति के सैद्धातिक और प्रवेश द्वारों के भीतर स्थित कहा जाता है। स्वयं जिन- भावनात्मक मादर्श अत्यधिक प्रतिफलित हुए है, जैसा कि मन्दिर समवसरण का प्रतीक है। होना भी चाहिए था। जैन स्थापत्यकला के प्राद्य रूपों में स्तूप एक रूप है, ज्योति निकुंज, चार बाग, लखनऊ-१ C00 १. जिम्मर (हैनरिख). फिलासफीज़ माफ इन्डिया, ४. तुलनीय : जैन (ज्योति प्रसाद) : जैन सोर्सेज माफ १९५१ न्यूयार्क, पृष्ठ १८१-८२ । द हिस्ट्री माफ ऐश्चॅट इन्डिया १९६४ दिल्ली, अध्याय १०.। २. स्मिथ (बी. ए.) : हिस्ट्री माफ फाइन पार्टस इन जैन (ज्योति प्रसाद): रिलीजन एन्ड कल्चर माफ इन्डिया सीलोन १६३० माक्सफोर्ड पृष्ठ । जैन्स (मुद्रण मे), प्रध्याय और प्रस्तुत ग्रन्थ के ३. लांगहर्ट (ए. एच): हम्पी रूइन्स, मद्रास, पृष्ठ ६६ । विभिन्न अध्याय ।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy