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वस्तु क्या है ?
श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली बस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है अथवा द्रव्य-पर्याय संयोगी भी नही है । वह तो हर हालत मे एक है, अकेला रूप होती है। वस्तु का एक सामान्य स्वरूप होता है जो है, सबसे भिन्न है अपने मे है, 'पर' रूप नहीं है। जैसे सोने त्रिकाल होता है, ध्रुव होता है। वस्तु किसी अवस्था मे, का बना हुमा जेवर है। सोना जेवर रूप है। जेवर सोने किसी रूप में, किसी सयोग में क्यों न रहे वह सामान्य को छोड़ कर नहीं है । जहाँ जेवरपना है वहाँ स्वर्णपना स्वरूप बराबर, हरदम एकरूप रहता है। उसी से उम है। एक समय में है, फिर भी दोनों का लक्षण अलगवस्तु की पहचान होती है। उसे सामान्य स्वरूप या अलग है । स्वर्णपना अपने स्वर्णत्व को लिए हुए है, हमेशा
कालिक स्वरूप कहते है। इसी से वस्तु का वरतुत्व स्वर्णपने मे है । अगर वह चाँदी से मिला है तो भी स्वर्णकायम होता है। दूसरी उस वस्तु को समय-समयवर्ती पना स्वर्ण मात्र में है, चांदी में स्वर्णपना नही है। जेवर अवस्था होती है । वह प्रनित्य होती है। पर' से संबंधित को देखें तो वह चादी के योग से बना है। बदल कर होती है। यद्यपि वह भी वस्तु की अवस्था है, परन्तु उससे अन्य रूप हार या कड का रूप भी हो सकता है। सुनार वस्तु का निर्णय नहीं होता । वह परिवर्तनशील है। जैसे का सबन्ध भी है । सुनार का सम्बन्ध जेवर के साथ है। मनुष्य में एक मनुष्यत्व सामान्य धर्म है। वह सभी वह जेवर बनाने में सहायक बना है परन्तु स्वर्ण के स्वर्णमनुष्यों में मिलता है । उससे यह पहचान होती है कि वह पने मे वह सहायक नही है । जब जेवर बेचने को जाते है मनुष्य है । परन्तु वह मनुष्य वालक, जवान, वृद्ध मादि तो लेने वाले की दृष्टि सोने पर है और सोने के दाम अनेक परिवर्तित अवस्थामो मे रहता है। सुन्दर, कुरूप, देता है । परन्तु अगर पहनने वाले के पास जाये तो उसकी पागल, अपाहिज मादि भनेक अवस्थायें होते हुए भी हर दृष्टि जेवर पर है । वह उसकी सुन्दरता, असुन्दरता को प्रवस्था में प्रगर खोजा जाए तो मनुष्यपना दृष्टिगोचर देखता है। जेवर को सामने रखने पर दो वष्टिया बनती होता है । मनुष्य मनुष्यपने को कायम रखते हुए बालक से है-एक जेवर की सुन्दरता की पोर दूसरी स्वर्ण के जवान और वृद्ध हो रहा है परन्तु हर अवस्था में मनुष्यपना स्वर्णपने की। इससे सिद्ध होता है कि वस्तु एक दृष्टि कायम है । उसको छोड़कर बालक-वृद्धपना नही । मनुष्य- का विषय नहीं, पूरी वस्तु को समझने के लिए दोनों स्व अगर मिलेगा तो इन अवस्थामों मे ही मिलेगा। दष्टियों की जरूरत है, अथवा यह कहना चाहिए कि इस प्रकार से यह बात बनी कि भनेक प्रकार की एक दृष्टि दूसरी दृष्टि की पूरक है, निषेधक नही। पक्स्थायें अवस्थावान् के बिना नहीं और अवस्थावान इसलिए वस्तु को मात्र एक दृष्टि रूप ही मानने वाले ने अवस्थामों के बिना नही। दोनों बातें एक ही समय मे पूरी वस्तु का पूरा स्वरूप नहीं समझा। है, मागे पीछे नही। कहने में शब्दो में प्रागे पीछे कही इसी प्रकार से प्रात्मा के बारे में विचार किया जा जा सकती है। पूरी वस्तु को समझने के लिए प्रवस्थावान् सकता है। एक तो प्रात्मा का कालिक स्वरूप है जो, पौर प्रवस्थायें दोनों को जानना जरूरी है। अगर हम पात्मा चाहे किसी अवस्था मे क्यो न रहे, हमेशा, सभी एक को मुख्य करके कथन कर रहे है तो समझना चाहिए अवस्थानों में कायम रहना और जो हमेशा, एकरूप, कि दूसरा विषय है जरूर, परन्तु कहने वाले का प्रयोजन केला, 'पर' से रहित, त्रिकाल, ध्रौव्य वस्तु स्वरूप को अभी उससे नहीं है।
दिखाने वाला स्वरूप है । वह उस प्रात्मा का चैतन्यपना अवस्थावान् तो किसी से भी प्रभावित नहीं है और है, ज्ञायकपना है अथवा ज्ञातादृष्टापना है। चतन्य अनेक