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फिर भी यदि कोई, विद्वान व्रात्य का अपशब्द कहकर प्रसिद्ध इतिहासज्ञ काशीप्रसाद जायसवाल ने 'माडर्न तिरस्कार करता है तो वह देवतामों के प्रति चपराधी है- रिव्यू' १९२६, पृ. ४६६) में लिखा था : लिच्छवि 'देवेम्य पावृश्चते य एवं विद्वांसं व्रात्यमुपवति ।' पाटलिपुत्र के 'अपोजिट' मुजफ्फरपुर जिले में राज्य करते
-(प्रथर्ववेद; वही) थे। वे व्रात्य प्रति प्रबाह्मण क्षत्रिय कहलाते थे। वे गणअथर्ववेद के उपर्युक्त उद्धरण व्रात्य को विद्वता एवं तंत्र राज्य के स्वामी थे। उनके अपने पूजा-स्थान थे,
तथा समाज में उसकी प्रतिष्ठा मोर सम्मान के उनकी प्रवैदिक पूजा-विधि थी और उनके अपने धार्मिक संबर में अच्छा प्रकाश डालते है। जैन श्रमण सदैव इसी गुरु थे। वे जैनधर्म और बौद्धधर्म के प्राश्रयदाता ये। प्रकार समाज तथा राजकुल में प्रतिष्ठा प्राप्त करता रहा है। उनमे महावीर का जन्म हुआ।
अथर्ववेद में मागधों का व्रात्यों के साथ निकट संबध उपर्युक्त उद्धरणों से यह बात संभव प्रतीत होती बताया गया है ; अतः व्रात्यो को मगधवासी माना जाता है। कि वैदिक 'व्रात्य' उस संस्कृति का पूर्वज या पूर्वपूरुषों का वैदिक साहित्य के उल्लेखों के अनुसार व्रात्य लोग न तो समुदाय था जिसका प्रादिदेव ऋषभ था और जो सभ्यता ब्राहाणों के क्रियाकाण्ड को मानते थे और न खेती तथा वैदिक काल रो भी पूर्व भारत मे विस्तृत थी। 00 व्यापार करते थे। अतः वे ब्राह्मण थे और न वैश्य, किन्तु योद्धा थे-घनुष बाण रखते थे ।
मनुस्मृति (प्र. १०) में लिच्छवियो को व्रात्य बतलाया गया है। लिच्छनि क्षत्रिय थे और मगघदेश के निकट बमते थे। भगवान महावीर की माता लिच्छवि गणतन्त्र के प्रमुख जैन राजा चेटक की पुत्री थी।" इस प्रकार, व्रात्यों को मगध का वासी गौर लिच्छवियो
बीर सेवा मन्दिर के अधिष्ठाता एव बनेकान्त के को व्रात्य बनलाने में अन्य लोग क्षत्रिय तथा जनो के पूर्वज प्रतीत होते है।
संस्थापक, प्राच्यविद्यामहार्णव प्राचार्य श्री जगलकिशोर अथर्ववेद (१५।१८।५) में व्रात्य की एक बहुत
मुख्तार की प्रथम जन्म शती के पुनीत पवमर पर उनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता का वर्णन है -- 'ग्रह ला प्रत्यङ् व्रात्यो
पावन स्मृति एव जैन सस्कृति को उनकी चिरस्थायी राध्या प्राह नमो व्रात्याय'; अर्थात् दिन मे पश्चिमाभिमुख |
प्रमूल्य सेवाप्रो के पुण्य स्मरण स्वरूप, अनेकान्त के आगामी तथा रात्रि में पूर्वाभिमुख व्रात्य को नमस्कार है । पश्चिम
दो प्रकों (वर्ष ३०, किरण ३ और ४) को सम्मिलित करके विशा सुषुप्ति (शयन) तथा पूर्व दिशा जागरण का प्रतीक प्राचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार स्मृति विशेषाक निकाला समझना चाहिए; अतः उक्त मन्त्र का मर्थ हुपा दिन मे
जा रहा है । अवसरानुकूल ग्राकार-प्रकार के इस विशेपाक
में स्व. प्राचार्य श्री के व्यक्तित्व और कृतित्व के विविध सोने तथा रात्रि में जागने वाले व्रात्य को नमस्कार है।
सन्दों के अतिरिक्त जैन सरकृति, इतिहास, पुरातत्त्व प्रादि यदि हम भगवद्गीता के 'या निशः सर्वभूतानाम'
के विविध पक्षो विषयक और सम्बद्ध विपयो के अधिकारी (२.६६) प्रादि श्लोक तथा प्राचार्य पूज्यपाद के समाधि
विद्वानो द्वारा लिखित प्रामाणिक शोधपूर्ण सामग्री होगी। शतक (७८) के
सभी यशरवी विद्वानो, समाज सेवियो, शोधकर्तामों 'व्यवहारे सुपुप्तो यः स जागत्मिगोचरे। जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे॥'
एवं अनुमन्धित्वत्मनों तथा सुविज्ञ पाठको से सानुरोध
निबेदन है कि उनके पास मस्तार श्री के जीवन एवं इस श्लोक पर ध्यान से विचार करें तो उक्त मन्त्र
कृतित्व से सम्बन्धित जो भी महत्त्वपूर्ण सामग्री, सम्मरणादि का रहस्य बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है --अर्थात् उस ब्रात्य
हो, उन्हें शीघ्र ही भेजने की कृपा करे, इस पुनीत कार्य को नमस्कार है जो संसार सरन्थी विषय-वासनामो से
मे योगदान करें। विमुख एवं प्रात्मचिन्तन मे सतत सलग्न रहता है।
- गोकुलप्रसाद जैन, सम्पादक
अनेकान्त आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार स्मति विशेषांक
११. 'जयचन्द्र विद्यालकार : भारतीय इतिहास की रूपरेखा' पृ. ३४६ का पाद-टिप्पण । १२. "जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका; पृ. ११४ ।