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________________ मध्यप्रदेश में मध्ययुगीन अंन शिल्पकला बूर धारंग में एक जैन देवालय है, जिस पर चतुर्दिक देवदेवियां उत्कीर्ण हैं। विरपुर (शयर) एक प्राचीन नगर था। यहां से उपलब्ध ऋषभदेव की धातु प्रतिमा महत्वपूर्ण है। इसकी रचना शैली स्वतन्त्र, स्वच्छ एवं उत्कृष्ट कलाभिव्यक्ति की परिचायक है। मून प्रतिमा पद्मासन लगाये है। निम्नभाग में वृषम चिह्न स्पष्ट है। स्कध पर अतीव सुन्दर केशावलि है। दक्षिण पाश्वं मे देवी अधिका । के वाम चरण के निकट लघु बालक की प्राकृति हैं, जो हंसली पारण किए हुए है। दक्षिण चरण की पोर जो बालक की प्राकृति है उसके दाहिने हाथ मे संभवतः मोदक एवं वाम मे उत्थित सर्प है । ग्वालियर किले का जैन पुरातत्व जैन धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । किले के हाथी दरवाजे और सास-बहू मन्दिरों के मध्य एक जैन मन्दिर है, जिसे मुगलकाल मे मस्जिद के रूप मे परिवर्तित कर दिया गया था । उत्खनन के अवसर पर यहा नीचे एक कमरा मिला था जिसमे कई नग्न जैन मूर्तियां और ११०८ ई० का एक लेख मिला था। ये मूर्तिया कायोत्सर्ग तथा पद्मासन दोनों प्रकार की है। उत्तर की वेदी मे दो नग्न कायोत्सर्ग मूर्तिया है । किले के उर्वाही द्वार की मूर्तियो मे प्रादिनाथ की विशाल मूर्ति है उसके पैरों की लम्बाई ६' एव मूर्ति ५७' ऊंची है। ग्वालियर से ही उपलब्ध तीर्थकर नेमिनाथ की एक प्रतिमा उल्लेखनीय है। आसन के नीचे विश्व धारण करने वाला धर्म दो सिंहो के रूप में प्रदर्शित है प्रतिमा के दाहिने पोर वाले सिंह के कार धर्मचक कित है। मूर्ति पद्मासन में है। पार्श्व मे दो पार्श्वचर व पार्श्व देवता है । हृदय पर धर्मचक्र है । मस्तक के पीछे प्रभामण्डल एवं मस्तक पर त्रिछत्र है । इसी क्षेत्र से उपलब्ध चक्रेश्वरी एवं गोमुख यक्ष की प्रतिमा भी महत्व - पूर्ण है। गोमूचतुष्कोण पाद पीठ पर बैठा है। इसके दाहिने हाथ में त्रिशूल के स्थान मे तीन लपेटों की मूठ वाला दण्ड है । बाये हाथ की वस्तु अस्पष्ट है । चक्रेश्वरी के दाहिने हाथ में भी इसी तरह का कोई अस्त्र है । रायपुर जिले में स्थित राजिम छत्तीसगढ क्षेत्र का प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। राजिम से जैन धर्म से सम्बन्धित मात्र एक प्रतिमा का ही उदाहरण उपलब्ध हुआ है। वह स्थानीय सोमेश्वर देवालय के अहाते में संरक्षित है। पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा कुंडलित नाग पर पद्मासन मे यैठी हुई है। सिर पर सप्तफण वाले नाग की छत्र-रूप मे छाया है । अधोभाग पर मध्य में चक्र और इनके दोनों पार्श्वो में परस्पर एक दूसरे की ओर पीठ किए सिंह मूर्तियाँ है तीर्थंकर के दोनों पा मे एक-एक परिचारिका एव ऊपर गंधर्व प्रादि है । प्राचीन भारतीय मूर्तिकला के क्षेत्र में मालव भूमि का विशिष्ट महत्व है। साची, घार, दशपुर, बदनावर, कानवन, बड़नगर, उज्जैन, मक्सी, नागदा, भौरासा, देवास, भ्रष्टा, कायथा, सीहोर, सोनकच्छ पंचायत, नेवरी, कन्नौद, जावरा, बड़वानी, श्रागर, महिदपुर प्रादि ऐसे कलाकेन्द्र है, जहा ब्राह्मण धर्म की प्रतिमाम्रो के साथ जैन धर्म की मूर्तियां मिलती है विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में निर्मित पुरातत्व संग्रहालय की तीर्थंकर दीर्घा मे विद्यमान तीर्थंकर प्रतिमायें महत्वपूर्ण है। इस संग्र हालय में उज्जयिनी से प्राप्त १७ तीर्थकर प्रतिमानों को कालक्रमानुसार रखा गया है। यहां की मूर्ति क्रमांक २०६ मे ग्रादिनाथ का अंकन है। इस सर्वतोभद्र प्रतिमा में जटायें तो कये तक है जिन्हे कर्म भी कहा जा सकता है। पद्मासन में ध्यानस्य इस प्रतिमा का आकार २६×२०×१० से० मी० है । संगममंर से निर्मित यह प्रतिमा १५वीं सदी की है, जो पारदर्शी भोने वस्त्र पहने है । पादस्थल पर पद्म व पुष्प भलंकरण है । क्रमांक २०७ में मुनिसुव्रत की प्रतिमा है। वाहन या पादस्थल पर कच्छर उत्कीर्ण है। पद्मासन व ध्यानमुद्रा में निर्मित इस प्रतिमा के प्रभामण्डल में चपक वृक्ष है तथा दोनों ओर वरुण यक्ष एवं नरदत्ता यक्षिणी है। प्रस्तर फलक का आकार २६२२ X १० से० मी० है । यह प्रतिमा कंठालवन से जिसे मेमका ने 'कान्तारवन' कहा है, उपलब्ध हुई थी। लेख के आधार पर इस प्रतिमा का काल १४१५ ई० के प्रासपास निश्चित किया जाता है। यहां संगृहीत तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की संगमर्मर निर्मित प्रतिमा विशेष कलात्मक है । २५X१० X ११ से० मी० आकार की इस प्रतिमा के नीचे चंद्रमा उत्कीर्ण है । ( शेष पृ० १६ पर )
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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