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________________ जैन वन: स्वरूप और परम्परा 'मुनिपरिवृढ़ाघ्रीनवहतः ॥ श्री नानक चन्द खातौली का एक लेख प्रकाशित हुमा है। चरणकमलान्यार्य महताम् ॥' उसमें कुछ अंश निम्न प्रकार हैचरणघरपोरेयचरणान् ॥' 'हमें प्रतिमा का उल्लेख दो रूपों में मिलता है गणिचरणापीठाचरणीम् ॥' प्रकृतिम मौर कृत्रिम-नीचेभूलोक में, यहाँ मध्य लोक 'सूरिकमसरसिजोत्ताररुचिम् ॥' में, ऊपर देव लोक में । जितने भी प्रकृत्रिम चैत्यालय हैं 'विधिकृताराधनाः पारपद्याः ॥' उन सब में प्रकृत्रिम प्रतिमायें ही विराजमान हैं। गुरु की मूर्ति के निर्माण के संबंध में श्वेताम्बर ति० म० से ज्ञात होता है कि ये सब प्रतिमा प्रष्ट प्रातिविद्वानों के जो विचार हैं उनसे यह पाठवीं शताब्दी से हार्य सहित परहंतों की होती हैं-इस युग की मादि में पूर्व नहीं जाती। और यदि उत्खनन में कोई प्राचीन सौधर्मेन्द्र ने अयोध्या में मंदिर बनाए (पादि०१६-१५०) मति मिलती भी हो तो भी उन्हें हम जैन-ध्वज के समान इनमे प्रकृत्रिम प्रतिमाएं हो विराजमान की। भरत जी प्राचीनत्व नही दे सकते-यतःधर्म का ध्वज तो सदा से ने २४ मंदिर बनवाये (पदम०) उनमें ७२ प्रतिमाएं ही रहा है जबकि प्राचार्यादि की मूर्तियाँ की उपलब्धि निर्माण करवाई (उत्तर० ४८.७७) ये सब परहंतों को किसी बंधे निश्चित काल से ही हो रही है। थी--प्रतिमा तीथंकरों की बनाई जाती हैं (31. पन्ना लाल) प्रारंभ में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनती थी (देवगढ़ 'ग्यारहवी शताब्दि के बाद तो प्राचार्य व मनियों की जैन कला ७१) मूर्तियां देवों की बनती हैं देव होते है की स्वतत्र मूर्तियां बनने लगी थी। उपर्युक्त पंक्ति सूचक प्ररहत और सिद्ध । अकित लेख में उल्लिखित नाम से ही काल के बाद जिन जनाधित मूर्तिकला विषयक ग्रथों का तीर्थकर की पहचान होती थी (जैन सदेश-शोधांक) निर्माण हुमा उनमें प्राचार्य मूर्ति निर्माण करके किंचित प्रकाश डाला गया है।'--'गुरु मूर्ति का शास्त्रीयरूप प्राचार्य उपाध्याय पोर मुनियों को मूर्तरूप देने का विषान जैन प्रतिमा शास्त्र में नहीं मिलता है।'निर्धारित न होने के कारण उनके निर्माण में एकरूपता नहीं रह सकी है।'-खंडहरों का वैभव (मुनि कान्ति 'मुनि अवस्था की मूर्ति बनती नहीं है।'सागर) पृ०४८-५० । ऊपर दिए गए सभी प्रसंगों से पंचरंगे ध्वज का रूप जैन-धर्म जैसा प्राचीन नहीं ठहरता। अतः यह मानना 'पाटवी शताब्दी से गुरु मूर्तियां मिलने लग गई है। ही श्रेयस्कर है कि यह पंचरंगा ध्वज जैनधर्म का प्राचीन ११वी के बाद अधिक मिलती हैं। पहिले गणधरों मादि ध्वज नहीं, अपितु सर्वसम्मत सामाजिक ध्वज है जो वीर के स्तूप बनते ही थे। स्तूप ही मूर्ति में विकसित हो गए। निर्वाण के २५००वें वर्षोल्सव प्रकाश में भाया। 000 अगर चन्द जी नाहटा (१७-१२-७७) वीर सेवा मन्दिर इसके अतिरिक्त दिनांक १२-१-७७ के जैन संदेश में २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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