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________________ जैन समाज के भीष्मपितामह समाज के मुख्य पत्रों के सम्यक् सम्पादन के अतिरिक्त पाप के मोलतोल वाले युग को ही महंगी नहीं मालूम होगी, ने कई ग्रन्थों का सम्पादन तथा हिंदी अनुवार भी किया जब वह थोड़ा-सा भी अन्तर्मुख होकर इस तस्त्री की है। ये सभी ग्रन्थ संस्कृत से हिन्दी में अनदित किए गए निष्ठा का अनुसद को पति-पक्ति पर दर्शन करेगा । हैं। इनके नाम इस प्रकार है : स्पष्ट ही, लेखक की साहित्य-साधना महान है। इस (१) प्राचार्य प्रमाचन्द्र का तत्वार्थसूत्र, (२) युक्त्य साहित्य देवता की सभी विशेषतामों पर प्रकाश डालना नुशासन, (३) स्वयम्भूस्तोत्र, (४) योगसार प्रामृत संभव भी नहीं है। इस छोटे से लेख मे स्तिना लिखा (५) समीचीन धर्मशास्त्र, (६) अध्यात्म रहस्य, (७) जा सकता है? किन्तु साहित्यिक मूल्याकन की दृष्टि से अनित्यभावना, (८) तत्वानुशासन, (६) देवागम यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्रापका बितना (णप्त-मीमांसा), (१०) मिद्धिसोपान (प्रा. पूज्यपाद साहित्य सजन का कार्य है वह प्रत्यन्त श्रमसाध्य निष्ठा विरचित पिद्धभक्ति का भावात्मक हिन्दी पद्यानुवाद), तथा लगन से परिपूर्ण है। सम्पादन तथा मनुवाद-जगत् (११) सत्साब स्मरणमंगलपाठ (संकलन तथा पिन्दी मे ऐसी रचनाए प्रत्यन्त प्रल्प है। इनके महत्व को वही मनुवाद)। समझ सकता है जो ऐसे दुरूह ग्रथों का अनुवाद करने बैठा हो और अपनी सच्चाई तथा ईमानदारी के सम्पादन तथा अनुबाद में लेखक ने मूल भाव को बनाये रखने का पूरा यत्न किया है और यही उनकी मुरूप कारण सफल न हो सका हो। इससे अधिक इस सम्बन्ध विशेषता है । मूल लेखक के भावो को हृदयगम कर उसके में और क्या कहा जा सकता है ? वास्तविकता यही है भावों को सरल भाषा में प्रकट करना मुख्तार जी का ही कि विद्वानों के वास्तविक महत्व का मूलां मन उस विषय का विशेषज विद्वान् ही कर सकता है। कार्य है। 'युक्त्यनुशासन' जैसे जटिल, दार्शनिक तथा महान् ग्रन्थ का प्रामाणिकता के साथ हिन्दी अनुवाद कर मुख्तारश्री बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता, यथार्थ मर्म को प्रकाशित करना मस्तारश्री को प्रतिभा लख, निबन्ध तथा समाजसुधारक से सम्बन्धित सामयिक का ही कार्य है। इसी प्रकार 'देवागम' तथा 'मध्यात्म. साहित्य पर सफल तथा सरल रचनाए प्रस्तुत कर उन्हान रहस्य' जैसे कठिन ग्रन्थों की गुत्थियां सुलझा कर हिन्दो जैन समाज मे मभिट स्थान बना लिया है। मैं समझता अनुवाद प्रस्तुत करने की सामर्थ्य प्राप में ही लक्षित हई है कि उनक लगभग पाच सा स भा माधक निवष है विस्तार से यहा पर सम्पादन तथा हिन्दी अनवाट प्रकाशित हो चुके है और लगभग दो दर्जन पुस्तके विवेचना न करके इतना कहना ही पर्याप्त समझताह प्रकाशित हो चुकी है। उन सब का विवेचन यहां अपेक्षित प्रकाशित हो चुका ह । उन। कि सम्पादन तथा अनुवाद कार्य के क्षेत्र मे माप जैन नही है। समाज के विरले ही विद्वान् है। दर्शनशाात्र के प्रकाण्ड वस्तुन. जैन समाज के एक महान व्यक्तित्व मुख्तारश्री विद्वान् प० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के शब्दो मे : साहित्य जगत के कीर्तिमान नक्षत्र थे. इसमे कोई सदेह 'युक्त्यनुशासन जैसे जटिल और सारगर्भ महान ग्रन्थ का नही। प्राश्चर्य तो यह है कि उन्होंने जीवन की अन्तिम सुन्दरतम अनुवाद, समन्तभद्र के अनन्यनिष्ठ भक्त साहित्य- सास तक लेखन-पठा वायों में व्यवधान नही माने दिया। तपस्वी पं. जगकिशोर जी महतार ने जिस प्रकल्पनीय बाहर से कोई न कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ मगवाकर उसका सरलता से प्रस्तुत किया है वह पाय-विद्या के अम्यापियों श्रवण-मनन चिन्तन करना उनके जीवन का सहज के लिए प्रालोक देगा। सामान्य-विशेष, यूतसिद्धि प्रयून- व्यापार हो गया था। समाज ऐसे विद्या धनी तपःपून, सिद्धि, क्षणभंगवाद, संतान प्रादि परिभाषिक दर्शन शब्दों माहित्यसेवी और विर तथा जैन समाज के भीष्मपितामह का प्रामाणिकता से भावार्थ दिया है। प्राचार्य जगल- की जन्म शताब्दी पर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित किशोर की मुस्तार की यह एकान्त साहित्य-साधना प्राज करता हूं। 000
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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