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३२, वर्ष ३०, कि० ३-४
भनेकान्त
हैं। भट्टारकों की प्रधार्मिक प्रवृत्तियों और माम्नाय का प्रभाव, जैन तीर्थंकरों मोर जैनाचार्यों का शासन भेद, विरुद्ध चर्चाओं पर उन्होंने जो समीक्षाए लिखी है, वे जैन आदि लेख भी वस्तुतत्त्व के उद्बोधक हैं। लेखों की समाज में प्रमाण रूप से मानी जाती है और अभी समाज भाषा भी प्रौढ़ पोर सम्बद्ध एवं स्पष्ट है। में उनकी प्रवश्यकता बनी हुई है। यद्यपि वे अप्राप्य हैं उपासना सम्बन्धी लेख भी उनके कम महत्वपर्ण किन्तु भावी पीढ़ी के लिए वे अधिक प्रमाणभूत होंगी नहीं हैं। वे भक्तियोग पर अच्छा प्रकाश डालते है और भविष्य के विचारकों को वे पथ प्रदर्शन का काम अवश्य निष्काम-भक्ति की महत्ता के हार्द को प्रस्फुटित करते हैं। करेंगी। समीक्षा ग्रन्थ लिखकर उन्होने विद्वानों के लिए भक्तिपरक निबन्धों में उपासनातत्त्व, उपासना का ढंग, मालोचना का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अब कोई भी भक्तियोगरहस्य, वीतराग की पूजा क्यों? और वीतराग विद्वान निर्भय होकर प्रार्प मार्ग के विरुद्ध ग्रन्थो की की प्रार्थना क्यो है, जिनमे भक्ति के स्वरूप का सुन्दर समीक्षा कर सकता है।
विवेचना किया गया है और निष्काम भक्ति से होने वाले आपने कभी कोई लेख झट-पट नहीं लिखा। सुखद परिणाम का अच्छा चित्रण किया गया है। उन्होंने सन्मति तर्क के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर पर जो 'सम्मति. सिद्धि को प्राप्त शुद्धात्मानो की भक्ति द्वारा प्रात्मोसूत्र और सिद्धसेन' नाम का निवन्ध मस्तार मा० ने लिखा त्कर्ष साधने का नाम 'भक्तियोग' अथवा भक्ति मार्ग है और वह अनेकान्त वर्ष ६ की किरण ११-१२ में बतलाया है वह यथार्थ है। पूजा, भक्ति, उपासना. प्रकाशित हुया है। वह कितना युक्ति-पूरस्सर है इसे प्राराघना, स्तुति, प्रार्थना, वन्दना और श्रद्धा सब उसी बतलाने की आवश्यकता नही, पाठक से पढ़कर स्वयं
के नामान्तर हैं । अन्तर्दृष्टि पुरुषों के द्वारा आत्मगुणों के अनुभव कर सकते है। उसम जो युक्तिया दी गई है,
विकास को लक्ष्य में रखकर गुणानुराग रूप जो भक्ति उनका उत्तर अाज तक भी नहीं दिया गया । खीचा-तानी की की जाती है वही प्रात्मोत्कर्ष की साधक होती है। लौकिक जा सकती है, पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर मख्तार लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा, यश, भय और रूढ़ि प्रादि के वश साहब का लिखना युक्ति-सगत और प्रमाणभूत है यह स्वयं होकर जो भक्ति की जाती है उसे प्रशस्त मध्यवसाय की अनुभव में आ जाता है। उसमे तथ्यो को तोड़ा-मरोडा साधक नहीं कहा जा सकता, पोर न उससे संचित पापों का नहीं गया है प्रत्युत वास्तविक तथ्यों को देने का उपक्रम नाश, या प्रात्म गुणो का विकास ही हो सकता है। स्वामी किया गया है । मुख्तार सा० की समीक्षात्मक दष्टि बड़ी समन्तभद्र जैसे महान् दार्शनिक प्राद्यस्तुतिकार ने भी पनी पौर तर्कशालिनी है। समीक्षा लेखो के अतरिक्त परमात्मा की स्तुति रूप भक्ति को कुशल परिणाम की हेतु शोध-खोज लेख भी उनके महत्वपूर्ण है; उदाहरण के बतलाकर उसके द्वारा श्रेयोमार्ग को सुलभ और स्वाधीन लिए 'स्वामी पात्रकेशरी और विद्यानन्द' वाला लेख बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वीतराग परमात्मा की कितने विचारपूर्ण और नवीन तथ्यों को प्रकाश में लाने यथार्थ भक्ति केवल परिणामों की कुशलता को ही सूचक वाला है। उसमे उन दोनों को एक समझने वाली भ्रांति का नही, प्रत्युत प्रात्म-सिद्धि की सोपान है-घातिकर्म का उन्मूलन कर वस्तुस्थिति को स्पष्ट किया गया है। इसी विनाश कर निरंजन भाव की साधिका हैं। प्रस्तु, मुख्तार तरह भगवान महावीर और उनका समय वाला लेख भी साहब ने जो कुछ लिखा, वह प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित सम्बद्ध और प्रामाणिक है । यद्यपि उनके लेख कुछ विस्तृत परम्परा से लेकर लिखा है। उन्होंने उसमें अपनी तरफ से हैं पर वे रोचक और वस्तुस्थिति के यथार्थ निदर्शक है। कुछ भी मिलाने का प्रयत्न नही किया; किन्तु उसके भाव इसी तरह श्वेताम्बर-तत्त्वार्थ सूत्र और उसके भाष्य की को अपने शब्दों एव भावों के भाषा-सौष्ठव के साथ जाँच, तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की एक सटिप्पण प्रति, समन्त- प्रकट किया है। भद्र का मुनि जीवन और पापात्काल, समन्तभद्र का समय आपके सामाजिक लेख क्रांति के जनक है। आप के मौर डा. के. वी. जो पाठक, सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र उन लेखों से जैन समाज में क्रांति की धारा बह चली।