________________ उपक्रम का तीसरा अंग है- अनुगम। अनुगम से तात्पर्य है- वाच्य अर्थ का कथन। सूत्र व अर्थ का युक्तिसंगत परस्पर सम्बन्ध स्थापित करते हुए अणुरूप (सूक्ष्मार्थयुक्त) सूत्र का, उसके सुसंगत अर्थ का कथनयह अनुयोग-पद्धति का उद्देश्य है।" अनुयोग पद्धति का चतुर्थ अंग है- नय। नय से नयन, अर्थात् विषयवस्तु की उपलब्धि या उसका ज्ञान होता है। 'नय' विषयवस्तु का बोध कराता है, अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी एक विवक्षित पर्याय (अर्थ) तक पहुंचाता है, उसे बोधगम्य बनाता है। नियुक्तिः अनुगम-अनुयोग का प्रकार नियुक्ति (व्याख्यान) एक तरह से अनुगम-अनुयोग ही है। निक्षेप आदि पूर्णतः व्याख्यान नहीं हैं, 'अनुगम' ही व्याख्यान रूप होता है।" निष्कर्ष यह है कि वस्तुतः सूत्र की व्याख्या अनुगम में ही प्रारम्भ होती है और इसलिए नियुक्ति भी 'अनुगम' से ही सम्बद्ध है। नियुक्ति-अनुगम के तीन भेद हैं- निक्षेपनियुक्ति, उपोद्घात-नियुक्ति, सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति। नियुक्ति की शास्त्रार्थनिर्णय में उपादेयताः नियुक्ति वह व्याख्यान है जो सूत्र व अर्थ का सम्यक् निर्णय करती है। आ. जिनदास गणी ने सूत्र में निर्युक्त' अर्थ का निर्वृहण (अभिव्यक्तीकरण) करने वाली व्याख्या को नियुक्ति' कहा है। भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण तथा शीलांकाचार्य के मत में सूत्र व अर्थ का योग या अर्थघटना को 'युक्ति' कहा जाता है और निश्चयपूर्वक या अधिकता (विस्तार) पूर्वक अर्थ का सम्यक् निरूपण 'नियुक्ति' है। अथवा नियुक्त अर्थों की युक्ति (निर्युक्त-युक्ति) ही 'नियुक्ति' है, अर्थात् सूत्रों में ही परस्पर-सम्बद्ध अर्थों की युक्ति करना (उनका 29. वि. भाष्य, गाथा-913 (अनुगम्यते व्याख्यायते सूत्रमनेन, अस्मिन्, अस्माद् वा इत्यनुगमः, वाच्यार्थविवक्षा तथैव। अथवा, अनुगमनम्, अनुगमः, अणुनो वा सूत्रस्य गमो व्याख्यानम् इत्यनुगमः / यदि वा, अनुरूपस्य घटमानस्य अर्थस्य गमनम् अनुगमः / सर्वत्र किमुक्तं भवतिइत्याह- यत् सूत्रार्थयोः अनुरूपम् अनुकूलम् सरणं सम्बन्धकरणम् इत्यनुगमः इति (बृहवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 913) / 30. विशेषा. भाष्य, गा. 914 एवं बृहद् वृत्ति। 31. नियुक्ति: अनुगम-भेदत्वा व्याख्यानात्मिकैव भवति .... निक्षेपस्तु नामादिन्यासमात्रात्मक एव वर्तते, न तु व्याख्यानरूपः, अनुगमस्यैव तद्रूपत्वात् (बृहदवृत्ति, वि. भाष्य, गाथा- 965) / 31. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा- 971-972, 33. निज्जुत्ताते अत्था, जं बद्धा तेन होइ निजुत्ती (वि. भाष्य, गाथा- 1085, नियुक्ति-गाथा)। 34. सुत्तनिजुत्त-अत्थनिजूहणं निजुत्ती (आवश्यक चूर्णि, 1, पृ. 92) / RBORORSPOROR [41] RSS CROBORRORB0BR