Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनीटीका अ. २९ सकलकर्मक्षयफलवर्णनम् ७३
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अविग्रहेण = वक्रगतिरूपविग्रहाभावेन, 'उज्जुसेढिपचे ' इत्यनेन प्राक्प्रतिबोधितार्थस्यैव पुनः कथनमिहान्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः स्पष्टतरो भवतीति लोकन्यायमनुसृत्येति बोध्यम् । तंत्र सिद्धिपदे गल्या, साकारोपयुक्तः - ज्ञानोपयोगवान्, सिध्यति, वुध्यते, यावदन्तं करोति । इह यावच्छब्देन -'मुच्यते, परिनिति, सर्वदुःखानाम् ' इति पाठो बोध्यते, सिध्यतीत्यादिपदानां व्याख्याऽष्टाविंशतितमे भेदे कृतेति तत्र द्रष्टव्या || सू० ७३ ॥
राल प्रदेशोंका नहीं स्पर्श करते हुए (उ-ऊर्ध्वम्) ऊर्ध्व दिशा में (एग - सम्म एणं - एक समये ) एक समय में (अविग्गणं तत्थ गंता - अविग्रहेण तत्र गत्वा ) विना वकताकी गति से अर्थात् सरल गति से सिद्धिपद में जाकर (सागारोव उत्ते - साकारोपयुक्तः ) ज्ञानोपयोगविशिष्ट होकर ( सिन्झइ बुज्झइ जाव अंत करेइ-सिध्यति, वुध्यते यावदन्तं करोति ) सिद्ध हो जाते हैं, बुद्ध हो जाते हैं यावत्समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं।
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भावार्थ -- केवली भगवान वेदनीय आदि चार अघातिका कर्मों के क्षय हो जानेके बाद औदारिक तैजस एवं कार्मण इन तीन शरीरोंका सर्वथा क्षय कर सरल अनुश्रेणि जतिसे एक ही समय में ज्ञानोपयोग विशिष्ट बनकर सिद्धगति में विराजमान हो जाते हैं । सूत्रमें अस्पृशति " ऐसा जो कहा है उसका तात्पर्य यह है कि अन्तराल के प्रदेशों का स्पर्श न करने से द्वितीयादिक समयों के सद्भावकी संभा वना हो जाती है । इस तरह एक समय में सिद्धगति जो प्राप्त होती है वह उस एक समय में प्राप्त न होकर द्वितीयादिक समयों में ही प्राप्त होनी मानी जावेगी- परन्तु ऐसा सिद्धान्त नहीं है । सिद्धान्त तो एक अर्थात सरण गतिथी, सिद्धि मां ने सागारोव उत्ते - साकारोपयुक्तः ज्ञानापयोगथी विशिष्ठ थपने सिज्जइ-बुज्झइ - जावअंत करेइ सिध्यति बुध्यते यावदन्तं करोति सिद्ध था लय छे, युद्ध थर्ध लय छे. यावत्सभस्त दु:मोनो अंत उरी हे छे. ભાષા કેવળી ભગવાન વેદનિય આદિ ચાર અઘાતિયા કર્મોને ક્ષય થઈ જવા પછી ઔદ્યારિક, તેજસ અને કાર્માણુ આ ત્રણ શરીરને સથા ક્ષય કરી સરળ અનુશ્રેણી ગતિથી એકજ સમયમાં જ્ઞાનેપચેગ વિશિષ્ટ ખનીને સિદ્ધ ગતિમાં બિરાજમાન થઈ જાય છે. સૂત્રમાં “ અસ્પૃશતિ ” એવું જે કહેલ છે તેવુ એ તાપય છે કે, અંતરાળના પ્રદેશાને સ્પર્શ કરવાથી દ્વિતિયાદિક સમયના સદ્ભાવની સભાવના થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે એક સમયમાં સિદ્ધિગતિ જે પ્રાપ્ત થાય છે તે એક સમયમાં પ્રાપ્ત ન થતાં દ્વિતિયાદિક સમયેામાં જ પ્રાપ્ત થાય એવું માનવામાં આવે. પરંતુ એવા સિદ્ધાંત