Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे वहिनः स्वदेश स्थितान् पायोग्यपुग्दलान् आत्मभावेन परिणमयति, एवं जीवोऽपि इदं चात्मावष्टब्धाकाशप्रदेशापेक्षया क्षेत्रं प्रोच्यते। दिशामाकाशादभेदोऽस्तीति सूचनार्थमिह दिशा शब्दोपादानम् , तद्भेदेन तासामप्रतीतेः । तथा च-दिग् ट्रव्यान्तरमिति यदुक्तं कैश्चित् , तदपास्तं भवति ।
तथा पइदिशगतमिति द्वीन्द्रियादारभ्य पञ्चेन्द्रियपर्यन्तमधिकृत्य नियमेन व्याख्येयम् , एकेन्द्रियाणां तैजस पुद्गलग्रहणे तिसृभ्यो दिग्भ्य आरभ्य यावत् षडूदिग्भ्यः पुद्गलग्रहणं भवति । तच्च कर्म आकाशस्य सर्वेष्वपि प्रदेशेषु आत्मावष्टजीव के साथ बंध को प्राप्त नहीं होते हैं उसका कारण उनमें तद्भाव से परिणमन होने का अभाव है। जैसे अग्नि स्वदेशस्थ प्रायोग्य पद्गलों को अग्निरूपसे परिणमाती है, उसी प्रकार जीव अपनेद्वारा अवष्टन्ध प्रदेशमें रहे हुए पुद्गलों को कर्मरूप परिणमा देता है । जीवसे यहां कषाय सहित जीव समझना चाहिये । यह जीव द्वारा अवष्टब्ध आकाश ही क्षेत्र है। दिशाओं का आकाश से कोई भेद नहीं है । सूर्य के उदय आदि की अपेक्षा ही आकाश पूर्व पश्चिम आदि दिशारूप से व्यवहृत होता है। इसी बात कि सूचना निमित्त यहां सूत्र में दिशा शब्द रखा गया है। इसलिये वैशेषिकसिद्धान्त में जो दिग द्रव्यान्तर रूप से कहा है वह ठीक नहीं है। यह पहिले कह दिया गया है कि सूत्र में " षडू दिशगतम्" पद से दश दिशाओं का गृहण हुआ है। एकेन्द्रिय जीवों के तैजस पुग्दलों का जो ग्रहण होता है उसमें तीन दिशाओं से लेकर छह दिशाओं तकके-पुग्दलों का ग्रहण होता है। वह कर्म आत्मा द्वारा अवનથી એનું કારણ એનામાં તદભાવથી પરિણમન થવાને ભાવ છે, જેમાં અગ્નિ
સ્વદેશસ્થ પ્રાગ્ય પગલેને અગ્નિરૂપથી પરિણમવે છે એ જ પ્રમાણે જીવ પિતાના દ્વારા રેકેલ પ્રદેશમાં રહેલા પુદ્ગલેને કર્મરૂપમાં પરિણમાવે છે,
જીવથી અહીં કષાય સહિત જીવ સમજવો જોઈએ. એ જીવ દ્વારા રેકેલ આકાશ પ્રદેશ જ ક્ષેત્ર છે, દિશાઓને આકાશથી કઈ ભેદ નથી. સૂર્યના ઉદય આદિની અપેક્ષા જ આકાશ પૂર્વ પશ્ચિમ આદિ દિશાઓથી ઓળખાય છે. આ વાતની સૂચના નિમિત્ત અહીં સૂત્રમાં દિશા શબ્દ રાખવામાં આવેલ છે. આ કારણે વૈશેષિકસિદ્ધાંતમાં જે દિગૂ દ્રવ્યાન્તર રૂપથી કહેવામાં આવેલ छत पराम२ नथी. २५७i मतापामा मावस छ , सूत्रमा " षड्दिशगतम्" पहथी ४श हिशाम्यानु घडप थये छ मेन्द्रिय पोना २ તેજસ પુદ્ગલેનું ગ્રહણ થાય છે એમાં ત્રણ દિશાઓ લઈને છ દિશાઓ