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सोमसेनभट्टारकविरचित--
rrorwari वाले केवली, श्रुतकेवली तो हैं नहीं और पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म हैं । उनके जाननेको हमारे पास पूरे साधन भी नहीं हैं । बुद्धि भी अत्यन्त मन्द हैं। ऐसे समयमें सर्वज्ञकी आज्ञाको ही प्रमाण मानकर उन. गहन पदार्थोका निश्चय करना आज्ञाविचयधर्मध्यान है ॥ ३४ ॥
येन केन प्रकारेण जैनो धर्मः प्रवर्धते ।
तदेव क्रियते पुम्भिरपायविचय मतम् ॥ ३५ ॥ जिस किसी तरह जैनधर्म बढ़ता रहे ऐसा विचार करना अपायवित्रयधर्मध्यान है । भावार्थयह प्राणी मिथ्यादृष्टियोंके पंजेमें फँसकर इस भव-समुद्र में अनेकों गोते खा रहा है; तथा कई लोग विषयोंकी वासनाओंसे लालायित होकर प्राणियोंको उल्टा समझा रहे हैं-स्वयं सन्मार्गसे पिछड़े हुए हैं
और साथ साथमें उन बे-समझ भोले जीवोंको भी अपने मोहजालमें जकड़कर हटा रहे हैं। इनको कब सुबुद्धि प्राप्त होगी और अपने भुज-पंजरमें फाँसकर दुःख-रूपी दहकती हुई अनिमें लोगोंको डालनेवाले थे लोग कुमार्गसे कैसे हटेंगे; और कैसे परम शान्त और सुख देनेवाले सन्मार्गमें लगेंगे, ऐसा चिन्तवन करना अपायविचयधर्मध्यान है ॥ ३५ ॥
शुभाशुभं च यत्कार्य क्रियते कर्मशत्रुभिः। ..
तदेव भुज्यते जीवैर्विपाकविचयं मतम् ॥ ३६॥ ये कर्म-शत्रु बुरा-भला फल उत्पन्न करते रहते हैं और उसी फलको बिचारे ये. जीव रातदिन भोगते रहते हैं, इस प्रकार कौके शुभ-अशुभ फलका चिन्तवन करना विपाकविचयधर्मध्यान है ॥ ३६॥
श्वप्रे दुःखं सुखं स्वर्गे मध्यलोकेऽपि तद्वयम् । __लोकोऽयं त्रिविधो ज्ञेयः संस्थानविचयं परम् ।। ३७ ॥ लोकके तीन भेद हैं; अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । अधोलोकमें नारकियोंको निवास है । वहाँ पर उन जीवोंको बड़ा ही कष्ट है---पल भर भी उन्हें सुख नहीं है। सारांश यह कि उनको दिनरात दुःख ही दुःख सहन करना पड़ता है। ऊलोकमें देव रहते हैं । वहाँ पर उनको कई प्रकारकी सुख-सामग्री अपने अपने भाग्यके अनुसार मिली हुई है, जिसका वे यथेष्ट उपभोग करते रहते है । तात्पर्य यह कि उन स्वर्गीय जीवोंका जीवन एक तरहसे सुखमय ही है। और मध्यलोकमें सुखदुःख दोनों हैं । इस तरह लोकके आकारका चिन्तवन करना संस्थानविचयधर्मध्यान है ॥ ३७॥
शुक्लध्यानके भेद। शुक्लध्यानं चतुर्भेद साक्षान्मोक्षपदप्रदम् । । पृथक्त्वादिवितकोख्यवीचार प्रथमं मतम् ॥ ३८ ॥ एकत्वादिवितर्काख्यवीचारं च द्वितीयकम् । सूक्ष्मक्रियाप्रतीपाति तृतीय शुक्लमुत्तमम् ॥ ३९ ॥ ...