________________
. त्रैवर्णिकाचार . [
तिस्रः कोट्योर्धकोटी च यावद्रोमाणि मानुषे । वसन्ति तावतीर्थानि तस्मान्न परिमार्जयेत् ॥ १७ ॥
मनुष्यके शरीरमें साढ़े तीन करोड़ राम होते हैं । और जितने रोम शरीरमें हैं उतने ही शरीरमें पवित्र स्थान हैं । इसलिए शरीरको पोंछकर अपवित्र न करे ॥ १७ ॥
पिबन्ति शिरसो देवाः पिबन्ति पितरो मुखात् । मध्याच्च यक्षगन्धर्वा अधस्तात्सर्वजन्तवाः ॥ १८ ॥
सिरसे टपकते हुए जलको देव, मुखसे टपकते हुएको पितर, मध्यमागसे टपकते हुएको सारे जीव पीते हैं । भावार्थ - स्नान कर कपड़े न पहननेके पेश्तर ही शरीरके अंग- उपांगों को पोंछ लेना चाहिये । कपड़े पहनने के बाद शरीरको किसी वस्तुसेन पोंछे । क्योंकि धोती पहन लेने पर जो पानी शरीरमें लगा रहता है वह उक्त प्रकारसे जूँठा हो जाता है । अतः उससे झरीरको पोंछ लेनेसे वह अवश्य ही अपवित्र कुत्ते चाटने जैसा हो जाता है । यद्यपि देवोंमें मानसिक आहार है, पितृगण कितने ही मुक्तिस्थानको पहुँच गये हैं इसलिए इनका पानी पीना असंभव जान पड़ता है । इसी तरह यक्ष, गंधर्वों और सारे जीवोंका भी शरीरके जलका पानी असंभव है, पर फिर भी ऐसा जो लिखा गया है उसमें कुछ न कुछ तात्पर्य अवश्य छुपा हुआ है । यद्यपि इस समय इन बातोंके जाननेका हमारे पास कोई काफी साधन नहीं है, क्योंकि इस समय इस विषयके उपदेशका अभाव है तो भी यह विषय अलीक नहीं है । यदि हमारे न जानने मात्रसे ही हर एक विषय अलीक समझ लिये जायँ तो कोई भी बात सत्य न ठहरेगी। यदि सभी बातें हम लोग ही जानते तो सर्वज्ञकी भी कोई आवश्यकता न होती । बहुतसे विषय ऐसे होते हैं कि वे हमें मालूम नहीं हैं, परन्तु खोज करनेसे शास्त्रान्तरोंमें मिल जाते हैं । और कोई ऐसे हैं जो नहीं मिलते हैं । ऋषियों को जितना स्मरण रहा है उतना भी वे अपने जीवन समय में नहीं लिख सके हैं । अत एव बहुतसे विषयोंके उत्तर शास्त्रों में भी नहीं पाये जाते हैं । जिनका उत्तर न पाया जाय और वह हमारी समझ न आता हो एतावता उसे अलीक कह देना उचित नहीं है । यद्यपि इस श्लोकका विषय असंभवसा मालूम पड़ता है, परंतु फिर भी वह पाया जाता है । अतः इसका कुछ न कुछ तात्पर्य अवश्य है । व्यर्थ बातें भी कुछ न कुछ अपना तात्पर्य ज्ञापन करा कर सार्थक हो जाती हैं । यदि कोई ऐसा कहें कि ऐसी बातों को झूठ ही क्यों न मान लिया जाय, इसमें कौनसा परमार्थ बिगड़ता है तो इसका उत्तर इतना ही ठीक रहेगा कि शास्त्रोंके विषयको इस तरह अलीक कह दिया जायगा तो हर एक मनुष्य हर एक बातको जो कि उसको अनिष्ट होगी, फौरन अलीक कह देगा तब शास्त्रकी • कोई मर्यादा ही न रहेगी । अलीक विषय वे कहे जा सकते हैं जो पूर्वापरविरुद्ध हों, परमार्थ में जिनसे बाधा आती हो, जो वाक्य बिलकुल बेसिरपैरके हों, जिनमें परमागमसे बाधा आती हो, जो कुमार्गकी ओर लेजानेवाले हों और प्राणियोंका अहित करनेवाले हों । पर इन श्लोकोंमें कोई मी इस तरहकी बातें नहीं हैं जो कि अप्रमाणं कहीं जायँ ।" सर्वत्रा विश्वस्ते नास्ति काचित् क्रिया । "
1