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सोमनभट्टारकविरचित
मूतके प्रतकाशौचे पुप्पं चेत् सिञ्चयेज्जलम् ।
शिरस्यमृतमन्त्रेण पूतं द्विजकरच्युतम् ॥ ३१ ॥ जननाशौच या मरणाशौचके होते हुए स्त्री (प्रथम ) रजस्वला हो जाये तो उसके मस्तकपर पुरोहितजीके हायसे जल सिंचन करावे ॥ ३१॥
कुर्यादानं च पात्राय मध्यमाय यथोचितम् ।
कुयोदेकत्र भुक्त्यादि पुष्पिणी तत्र तत्र च ॥ ३२॥ अनन्तर मध्यमपात्रोंको यथोचित दान दे और वह रजस्वला पूर्ववत् एक ही स्थान में भोजन आदि करे । भावार्थ-साधारण रजस्वलाके लिए जो विधि बताई गई है उसीके अनुसार यह प्रथम रजस्वला हुई स्त्री भी अपना वर्ताव करे ॥ ३२ ॥
अज्ञानाद्वस्वंग पुष्पे स्पृष्टं यद्यत्तया नदा ।
हस्तादवाक् स्थितं चापि तत्संच दुपितं भवेत् ।। ३३ ।। जिस स्त्रीको रजस्वलापनका ज्ञान न हो ऐसी हालतमें वह जिन जिन चीजोंका स्पर्श करे ये चीजें वथा उसके पास रक्खी हुई एक हाथ दर तककी अन्य सब चीजें भी दषित हो जाती है ॥ ३३ ॥
अज्ञानाज्ज्ञानता बापि तत्पाणिदत्तभोजनम् ।
अन्यद्वा योऽत्ति नाश्नीयादसावेकद्विवासरम् ।। ३४ ।। अज्ञानवश किवा मिश्याज्ञान या जानबूझकर भी यदि कोई उस रतत्वलाके हायका दिया हुआ भोजन अथवा और कोई चीज खा ले तो वह एक दिन या दे दिन भोजन न करे अर्थात् एक या दो उपवास करे ।। ३४ ॥
यामादक्तिदस्य” पल्यङ्कासनवस्त्रके ।
कुड्यादिसंयुते पंक्त्यासने स्नायात्सचेलकम् ॥ ३५॥ रजस्वलाके समीप पलंग, दरी, वस्त्र वगैरह एक प्रहरसे भी कम समय तक रखे रह जाय तो वे सब अशुद्ध हो जाते हैं। तथा जिस दीवाल आदिसे चिपटकर रजस्वला पैटी हो उसी दिवालसे उसी लाइनमें जो कोई टिककर बैठे तो वह अपने सब वस्त्र धोवे और स्नान करे ॥ ३५ ॥
रजस्युपरते तस्य क्षालनं स्नानमेव च ।
रजः प्रवर्तते यावत्तावदाशौचमेव हि ॥ ३६ ॥ जब रज बंद हो जाय तब वह अपने पासकी सब चीजोंको धो डाले और स्नान कर ले क्योंकि जबतक रजःप्रवाह शुरू रहता है तबतक अशौच-अपवित्रता बनी रहती है ।। ३६ ॥
ऋतुमत्या कृता यत्र मुक्तिः सुप्तिः स्थितिथिरम् ।
निषद्या चं तदुदेशं मृज्यादद्विगामयैर्जलैः ॥ ३७॥ ऋतुमती स्त्री तीन दिन तक जिस स्थानमें सोवे, बैठे-उठे और भोजन करे उस स्थानको गोबर और पानीसे दो चार लीपे । भावार्थ-ऊपर यह कह आये है कि रजस्वला स्त्री तीन दिन नक एक स्थान में सोन', बैठना, उठना, खाना, पीना आदि कार्य करे। वह जिस स्थानमें तीन दिन तक ये कार्य कर उस स्थानको गोबर और पानीसे दो बार लीप डालना चाहिए ॥ ३७॥