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त्रैवर्णिकाचार। .
३८९ आहारस्य पदानं च धार्मिकाणां शतस्य वा। तदर्धस्याथवा पंचविंशतः प्रविधीयते ॥ १५३ ॥ तीर्थस्थानानि वन्धानि नव वा सप्त पंच वा।
दुष्टतिथ्यादिमरणे प्रायश्चित्तमिदं भवेत् ॥ १५४ ॥ दुष्ट तिथि, वार, नक्षत्र और योगमें यदि किसीका मरण हो जाय और मृतक पुरुषको मरणके बाद बहुत देरसे जलाने के लिए ले जाय तो उस दोषके परिहारके लिए कर्ता हाथ जोड़ प्रदक्षिणा देकर विद्वानोंसे प्रार्थना करे और प्रायश्चित्त ले । यथाशक्ति जिनभगवानकी पूजा करे, महायंत्रकी पूजा करे, शान्तिविधान और होम करे, महामंत्र का जाप्य दे। सौ, पचास, किंवा पञ्चीस धर्मास्माओंको आहार-दान दें। नौ, सात या पांच तीयोंकी वेदना करे । यह दुष्ट तिथि आदिमें मरनेका प्रायश्चित्त है ।। १५०-१५४ ॥
अतिदुर्भिक्षशस्त्रानिजलयात्रादिना मृते । प्रायश्चित्तं तु पुत्रादेस्तदानीमिदमिष्यते ।। १५५ ॥ महायन्त्र समाराध्य शान्तिहोमो विधाय च । .
अष्टोत्तरसहस्रेण घटैरष्टशतेन वा ॥ १५६ ।। जिनस्य स्नपनं कार्य पूजा च महती तदा । दश तीर्थानि वन्यानि नव वा सप्त पञ्च वा ॥ १५७ ॥ गोदानं क्षेत्रदानं च तीर्थस्य विदुपामपि ।। पञ्चानां मिथुनानां तु अन्नदानं सधर्मिणाम् ।। १५८ ॥ अन्दादाग्विधायैवं पूजनीयो जिनोत्तमः ।
एवं कृते तु बन्धूनां स दोप उपशाम्यति ।। १५९ ॥ अत्यंत दुर्भिक्ष, शस, अग्नि, जलयात्रा आदिके संबंधते मरण हो तो उस समय उस मृतकके पुत्र आदिके लिए यह प्रायश्चित्त है । महायंत्रकी आराधना करे, शान्तिपाठ पढ़े, होम करे, एक हजार आठ या एक सौ आठ कलशांसे जिनदेवका अभिषेक करे, उनकी अष्ट द्रव्योसे पूजा करे, दश, नौ सात किंवा पांच तीयाको वंदना करे । तीयाको तथा विद्वानोंको गोदान दे, क्षेत्रदान दे और पांच साधी स्त्री-पुरुपके जोड़ेको आहार-दान दे। मरणसमयसे लेकर एक वर्षसे पहले पहले तक उक्त विधि करना चाहिए । ऐसा करनेपर बंधुओंके उक्त दोषको शान्ति होती है।। १५५-१५९ ॥
विद्वद्विशिष्ट रुपैः प्रायश्चित्तमिदं तदा। .
वक्तव्यं प्रकटं कृत्वा ग्राह्य का यथावलम् ।। १६० ॥ उस समय विद्वान पुरुष उक्त प्रायश्चित्त प्रकट कर कहें और कर्ता यथाशक्ति उस प्रायश्चित्तको ग्रहण करे ।। १६०॥