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त्रैवर्णिकांचार । पिण्डं तिलोदकं चापि कर्ता दद्याच्छिलाग्रतः । सर्वपि बन्धवो दयुः स्नातास्तत्र तिलोदकम् ॥ १७० ॥ ततोऽपि स्नानमाचार्य निमजनसमन्वितम् ।
ततः कनिष्ठं कृत्वाऽग्रे सर्वे ग्राम प्रयान्तु वै ॥ १७१ ॥ अनन्तर इस मृतक पुरुषका रत्नत्रयका आश्रय, सन्यासमरण और समाधिमरणका साधन तथा परमोत्कृट परलोककी प्राप्तिका कारण शरीर नष्ट होगया ऐसा मान कर धर्मवात्सल्यसे और संधुत्व वात्सल्यसे भी उके शरीरके प्रतिबिंवके लिए अर्थात् यह उसके शरीरकी स्मृतिका चिन्ह दे ऐसा समझकर जलाशयकी तीरपर मंडपमें या विना ही मंडपके पिंडदानके लिए एक पत्थरकी स्थापना फरे । उस शिलाके अग्रभागमें कर्ता पिंड और तिलोदक दे और अन्य सब बंधु भी स्नान कर तिलोदक देयें । अनन्तर सबके सब दुबकी लगाकर स्नान करें। पश्चात् एक छोटे बालकको आगे कर सय ग्रामकी ओर प्रयाण करें ॥१६७-१७१॥
द्वितीय दिनसे लेकर दशवें दिनतकके कृत्य । परेशुरपि पूर्वाह योपितो ज्ञातयोपि वा । गन्या स्मशानं तत्रामा विदध्युः क्षीरसेचनम् ॥ १७२ ।। तृतीये दिवसे कुर्यादग्निनिर्वापनं प्रगे। अस्थिसञ्चयनं तुर्य पञ्चमे वेदिनिर्मितिम् ।। १७३ ॥ तत्र पुष्पांजलिं पष्ठे सप्तमे वलिकर्म च । वृक्षस्य स्थापनं पश्चान्नवमे भस्मसंस्कृतिम् ।। १७४ ।। दशमं तु गृहामत्रवास:शुद्धिं विधाय च ।। स्नात्वा च स्नापयित्वा च दाहक भोजयेद् गृहे ॥ १७५ ।। एवं दशाहपर्यन्तमतत्कर्म विधीयते ।
पिण्डं तिलोदकं चापि कतो दद्यात्तदाऽन्वतम् ॥ १७६ ॥ दूसरे दिन मुबहक समय, स्त्रियां या मृतकके बंधुओंमेसे कोई पुरुष स्मशानमें जाकर उस अभिमें दूध साँचे । तीसरे दिन सुबह अमि बुझायें। चौथे दिन अस्थिसंचय (नाखून आदि इकडे) करें। पांचवें दिन यहां एक वेदी (चपूतरा ) बनावें । छठे दिन उसपर पुष्पांजली क्षेपण करें। सातवें दिन बलि ( सीसा हुआ धान्य ) चढ़ावें । आठवें दिन वृक्षकी स्थापना करें। दशवें दिन भर, वर्तन, कपड़े आदिकी शुद्धि करें । अनन्तर स्वयं स्नान करके व औरोंको कराके दाहकोंको अपने घरपर भोजन कराये । इस तरह दश दिनतक यह विधान करें। संस्कारकर्ता उस समय प्रतिदिन पिंड और तिलोदक देवे ॥ १७२-१७६ ॥
पिण्डमदानतः पूर्वमन्ते च स्नानमिष्यते । पिण्डः कपित्थमाला सच शाल्यन्धसा कृतः ॥ १७७ ।।