________________
३९२
सोमसेनभट्टारकविरचिततत्पाकश्च वहिः कार्यस्तत्पात्रं च शिलापि च ।
कर्तुः संव्यानकं चापि वहिः स्थाप्यानि गोपिते ॥ १७८ ॥ पिंड देनेके पहले और पीछे स्नान करे । केयकी बराबर, चावलोंका पिंड बनावे । चावलों को बरसे बाहर पकावे, घरमें न पकावे | चांवल, पकानेका पान, पत्थर और अपने पहननेओढ़नेके दोनों वस्त्र, इन सबको वह पिंडदाता पहले ही घरसे बाहर किसी गुप्त स्थानमें रखदे, घरमैसे न मंगवावे । भावार्थ--जिस समय पिंड बनानेके लिए पिंडदाता स्लान करे वह उसके पहले उक्त चीजोंको घरसे बाहर किती गुप्तस्थानमें लेजाकर रखदे। अनन्तर स्नान कर उन चीजोंको वहांसे ले आवे किसीके हाथ न. मंगवावे ।। १७७-१७८ ॥ .
प्रेतदीक्षा। कर्तुः प्रतादिपर्यन्तं न देवादिगृहाश्रमः । नाधीत्यध्यापनादीनि न ताम्बूलं न चन्दनम् ।। १७९ ॥ न खट्वाशयनं चापि न सदस्युपवेशनम् । न क्षोरं न द्विभुक्तिश्च न क्षीरघृतसेवनम् ।। १८० ।। न देशान्तरयानं च नोत्संत्रागारभोजनम् । न योषासेवनं चापि नाभ्यङ्गस्नानमेव च ॥ १८१ ॥ न मृष्टभक्ष्यसेवा च नाक्षादिक्रीडनं तथा ।
नोष्णीषधारणं चैषा प्रेतदीक्षा भवेदिह ॥ १८२ ॥ मृतकक्रिया करनेवाला मरणदिनसे लेकर शुद्धिदिनपर्यंत देवपूजा आदि गृहस्थके षट्कर्म न करे, अध्ययन-अध्यापन न करे, तांबूल (पान-बीड़ा) न चावे, तिलक न करे, पलंगपर न सौबे, सभा-गोष्टीमें न बैठे, क्षौरकर्म न करावे, दो वार भोजन न करे, (एकवार भोजन करें)। द्ध-धी न खावे, अन्य देश-ग्रामको न जावे, ज्योनारमें न जीमें (फूटपार्टी आदिमें शामिल न होवे), बीसवन न करे, तैलकी मालिश कर स्नान न करे, मिष्टान भक्षण न करे, पांसे आदिसे न खेले, चौपड़ सतरंज आदिके खेल न खेले और शिरपर पगड़ी साफा व टोपी वगैरह न लगावे । यह सब प्रेतदीक्षा है ॥ १७९-१८२ ॥ . यावन क्रियते शेषक्रिया तावदिदै व्रतम् ।
आचार्यं कर्तुरेकस्य ज्ञातीनां त्वादशाहतः ॥ १८३ ।। जब तक बारहवें दिनकी शेषक्रिया न करले तब तक दाहकर्ता उक्त व्रतोंका पालन करे । तथा अन्य कुटुंबी जन दशवें दिन तक इन व्रतोंको पालें ॥ १८३ ॥
कर्ताका निर्णय । कती पुत्रश्च पौत्रश्च प्रपौत्रः सहजीथवा । तत्सन्तानः सपिण्डानां सन्तानो वा भवेदिह ॥ १८४ ॥