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सोमसेनभट्टारकविरचित विक्रम संवत् १६६७ के कार्तिक महीनेकी शुक्लपक्षकी पूर्णिमा तिथि, रविवार, सिद्ध योग और अश्विनी नक्षत्र में यह धर्मरसिक नामका त्रैवर्णिकाचार शास्त्र पूर्ण किया जाता है ॥ २१७ ॥
श्लोका येऽत्र पुरातना विलिखिता अस्माभिरन्वर्थतस्ते दीपा इव सत्सु काव्यरचनामुद्दीपयन्ते परम् । नानाशास्त्रमतान्तरं यदि नवं प्रायोऽकरिप्यं त्वह
काशाऽमाऽस्य महो तदेति सुधियः केचित्प्रयोगंवदाः ॥ २१८ ॥ इस शास्त्रमें हमने प्रकरणानुसार ज्योंके त्यों प्राचीन प्रसिद्ध श्लोक लिखे है। वे श्लोक सजन पुरुषोंके समक्ष दीपकके समान स्वयं प्रकाशमान हैं, जो काव्य-रचनाको उत्कृष्टताके साथ उद्दपिन करते हैं। यद्यपि मैंने अनेक शास्त्र और मतोंसे सार लेकर इस नवीन शास्त्रकी रचना की है, उनके सामने इसका प्रकाश पड़ेगा यह आशा नहीं, तो भी कितने ही बुद्धिमान् नवीन नवीन प्रयोगोंको पसंद करते हैं अतः उनका चित्त इससे अवश्य अनुरंजित होगा ॥ २१८ ॥
श्लोकानां यत्र संख्याऽस्ति शतानि सप्तविंशतिः ।
तद्धमरसिकं शास्त्रं वक्तुः श्रोतुः सुखप्रदम् ॥ २१९ ॥ जिसमें श्लोकोंकी संख्या दो हजार सात सौ २७०० है वह धर्मरसिक नामका शास्त्र वक्ता और श्रोताओंको सुख प्रदान करे ॥ २१९ ॥
१९७६ फाल्गुन-१९८० फाल्गुन । इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारप्ररूपण भट्टारकश्रीसोमसेनविरचिते
सृतकशुद्धिकथनीयो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
समाप्तोऽयं त्रैवर्णिकाचारः।