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वार्णकाचार। सर्वेपामप्यभावे तु भर्ता भार्या परस्परम् । तत्राप्यन्यतराभावे भवेदेकः सजातिकः ॥ १८५॥ उपनीतिविहीनोऽपि भवेत्कर्ता कथञ्चन ।
स चाचार्योक्तमन्त्रान्ते स्वाहाकारं प्रयोजयेत् ।। १८६ ॥ मतमक्रियाका की सबसे पहले पुत्र है। पुत्रके अभाव में पोता, पोतेकै अभावमें भाई, भाईके अभावमें उसके लड़के, उनके भी अभावमें सपिंडों (जिनको दश दिन तकका सूतक लगता है ऐसे जौथी पीढ़ी तकके सगोत्री बांधों) की संतान है । इन सभीका अभाव हो तो पति-पत्नी परस्पर एक दूसरेफे संस्कारकर्ता हो सकते हैं । इनका भी अभाव हो अर्थात् पुरुषके पत्नी न हो और लोके पति न हो तो उनकी जातिका कोई एक पुरुष हो सकता है । जिसका उपनयन संस्कार नही हुआ हो वह भी कचित् कर्ता हो सकता है, परंतु सजाति होना चाहिए। वह जब आचार्य मंत्रोचारण करे उसके अंतमें सिर्फ स्वाहा' शब्दका प्रयोग करे-मंत्रोच्चारण न करे ॥ १८४-८६ ॥
शपक्रियाका लक्षण और उसके करनेका समय । प्रेतकाघस्य पाश्चात्यक्रिया शेपक्रिया भवेत् । तस्याप्यघस्य संशुद्धिर्दशमे दिवसे भवेत् ।। १८७ ।। तव पिण्डपापाणमुद्धृत्य सलिले क्षिपेत् ।
नदृह्म द्वादशाहं तु भवेच्छेपक्रियाक्रमः ॥ १८८ ॥ मरणाशीची रायसे अंतिम क्रियाको शेषक्रिया कहते हैं। उस आशौचकी शुद्धि भी दश दिन होजाती है-ददा दिनसे ऊपर मरणाशीच नहीं रहता । जलाशयके तीरपर पिंड देनेके लिए जो पाराण (शिला) स्थापित किया जाता है उसे उसी दिन (दशवें दिन ही) पानी में फेंक दे। अनन्तर बारहवें दिन शेष क्रियाक्रम करे ।।१८७-१८८ ।।
अस्थिसंचय। नदाऽस्थिसञ्चयश्चापि कुजवारे निषिध्यते । तथैव मन्दवारे च भार्गवादित्ययोरपि ॥ १८९ ॥
अस्थीनि तानि स्थाप्यानि पर्वतादिशिलाविले।
प्रकृत्यवाधिखातोामथवा पौरुषावटे ॥ १९०॥ उस समय मतककी अस्थियों ( हड्डियों) का संचय भी करना चाहिए। मंगलवार, शनिवार, शुक्रवार और रविवारको अस्थिसंचय न करे, किन्तु सोमवार, बुधवार और वृहस्पतिवारको करे । उन अस्थियोंको लाफर पर्वत आदिकी शिलाके नीचे या जमीनमें पुरुषप्रमाण पांच हाथ या सादे तीन हाथ गहरा गढ़ा खोदकर उसमें रक्खे ॥ १८९-१९॥
ग्यारहवें दिनकी क्रिया। एकादशेऽह्नि दहनभूपावहनकारकान् ।. , इति पद पुरुपान स्नानभोजनैः परितर्पयेत् ॥ १९१ ॥..