Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 418
________________ ANrnimraimmornhv वर्णिकाचार। होता । अतएव पिताका पूर्ववती आशौच तो माताके पश्चात् हनियाल भशौचको बाधित कर देता है परंतु माताका पूर्ववती आशौच पिताके पश्चात् होनेवाले आशौचको बाधित नहीं करता । यही कारण है कि पिताकै भाशीचकी समाप्तिके दिन माताका भाशौच समाप्त होजाता है परंतु माताके भाशीचके दिन बाद होनेवाग भी पिताका अशौच उस दिन समाप्त नहीं होता ॥७७.५ एकमेव पितुश्चायं कुर्यादेशे दशाहनि । ततो माह श्राद्धं कुर्यादाधादि षोडश ॥ ७८॥ ऐसे समयमें पिताको मृत्युके दशवें दिन प्रथम पिताका एक श्राद्ध करे। उसके बाद माता के प्रथम श्राद्धसे लेकर सोलह श्राद्ध करे । अनंतर पिताके सब श्राद्ध करे ॥ ७८॥ . एकस्मिन्नेव काले चेन्मरणं श्रूयते तयोः। दुरगोऽप्याचरेत्पुत्रो ह्यागौचमुभयोः समम् ॥ ७९ ॥ . यदि पुत्र, माता और पिता दोनोंका मरण एक ही दिन सुने तो दूर देश रहते हुए भी वह दोनोंका बराबर अशौच पालन करे |॥७९॥ दूरदेशं गते वार्ता दूरतः श्रूयते न चेत् । यदि पूर्ववयस्कस्य यावत्स्यादष्टविंशतिः ॥ ८॥ तथा मध्यवयस्कस्य ह्यब्दाः पञ्चदशैव तत् । । तथाऽपूर्ववयस्फस्य स्थाद द्वादशवत्सरम् ।। ८१॥ . अत ऊर्च मेतकर्म कार्य तस्य विधानतः । श्राद्धं कृत्वा षडब्दं तु प्रायश्चित्तं स्वशक्तितः ॥ २ ॥ प्रेतकार्ये कृते तस्य यदि चेत्पुनरागतः। घृतकुम्भेन संस्नाप्य सौषधिभिरण्यथ ॥ ८३ ॥ संस्कारान् सकलान् कृत्वा मौजीवन्धनमाचरेत् । पूर्वपल्या सहैवात्य विवाहः कार्य एव हि ॥ ८४ ॥ अपने कुटुंबका कोई व्यक्ति देशान्तरको चला जाय और उसका कोई समाचार न आवे तो ऐसी दशामें वह पूर्व वय ( तरुण अवस्थाकी पूर्व अवस्था )का हो तो अहाईस वर्ष तक, मध्यम क्यका हो तो पंद्रह वर्पतक और अपूर्व वय (मध्यम वयके बादकी अवस्था) का हो तो बारह . वर्पतक उसके आनेकी राह देखी जाय । अनन्तर विधि-पूर्वक उसकी प्रेतक्रिया करनी चाहिए। उसका श्राद कर छह वर्षतकका अपनी शक्तिके अनुसार प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए और यदि प्रेत कार्य करनेपर वह आजाय तो उसका साँषधि रससे और घृतसे अभिषेक करें, उसके सब जातकर्म संस्कार करें, नवीन यशोपवीत संस्कार करें और यदि उसका पहले विवाह हुआ हो और वह पूर्व पत्नी जीती हो तो उसीके साथ पुनः विवाह-कार्य किया जाय ।। ८०-८४ ।। ___ शुद्धिक दिन रोगीको स्नानविधि । आतुरे तु समुत्पन्ने दशवारमनातुरः। . ., स्नात्वा स्नात्वा.स्पृशेदेनमातुरः शुद्धिमाप्नुयात् ।। ८५॥

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