Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 416
________________ 14. त्रैवर्णिकाचार | स्त्रीसूतौ तु तथैव स्यादनिरीक्षणलक्षणम् । पदधिकाराचं स्यात्रिंशदिवसं भवेत् ॥ ६६ ॥ N पुत्र-जन्म में दश दिन तकका माताको अनिरीक्षण सुतक है अर्थात् दश दिनतक प्रसूतिका कोई मुखावलोकन न करें। तथा वीस दिनतकका उसे अनधिकार सूतक है अर्थात् प्रसूति दिन से बीस दिन तक वह घरके कोई कार्य न करे । इसी तरह पुत्री जन्ममें दश दिनका अनिरक्षिण सूतक और तीस दिनतकका अनधिकार सूतक है । ६५-६६ ॥ तया संवासादिसंसर्गे पितुरप्यंधम् । अनिरीक्षणम संसर्गे त्वस्पृश्याधं मनाग्भवेत् ॥ ६७ ॥ यदि बालकका पिता प्रसूतिके साथ एक स्थान में रहना आदि संसर्ग करे तो उसको भी अनिं रीक्षण सूतक है अर्थात् दश दिन तक उसका भी कोई मुख न देखें। यदि वह प्रसूतिकें साथ तो रहे पर उसका स्पर्श वगैरह न करे तो उसे अस्पृश्य सूतक है अर्थात् दश दिन तक उसका कोई स्पर्शन करे ॥ ६७ ॥ मृतकं मृतकेनैव सूतकं सूतकेन च । शान शुद्धयते सूतिः शावं सूत्या न शुद्धयति ॥ ६८- ।। રહે मृतक सूतककी मृतक सूतकसे, जातक सुलककी जातक सूतकसे और "जातक सूतककी मृतक स्तकते शुद्धि हो जाती है; परंतु मृतक सूतक की जातक सूतकसे शुद्धि नहीं होती । भावार्थ-एक मृतक रातकके बाद दूसरा मृतक सूतक और एक जातक सूतकके बाद दूसरा जातक सूतक आ उपस्थित हो तो पहले सुतककी समाप्तिके दिन ही दूसरा सूतक पूर्ण हो जाता है तथा मृतक सूतक के बाद प्रसूति सूतक हुआ हो तो मृतक सुतककी पूर्णता के दिन जातक सूतक भी पूर्ण हो जाता है, परन्तु प्रसूति सूतकके बाद मृतक सूतक हुआ हो तो प्रसूति सूतक की पूर्णताके दिन मृतक सूतक पूर्ण नहीं होता ॥ ६८ ॥ Pa : अथ देशांतरलक्षणं- देशान्तरका लक्षण । महानन्तरे यत्र गिर्वा व्यवधायकः वाचो यत्र विभिद्यन्ते तदेशान्तरमुच्यते ॥ ६९ ॥ त्रिंशद्योजनदूरं वा प्रत्येकं देशभेदतः । प्रोक्तं मुनिभिराशौचं सपिण्डानामिदं भवेत् ॥ ७० ॥ जहां पर बोली, बदलते हुए महानदी बीच में पड़ती हो या मोली बदलते हुए ही पर्वत बीचमै पड़ता हो वह देशान्तर है अथवा तीस योजनसे ऊपरके देशको भी देशान्तर कहते हैं। अगर कोई सपिंड (चौथी पीढ़ीतक के ) बांधव देशान्तर में निवास करते हो तो उनको यह सूतकुः देश-भेदकी अपेक्षासे प्राप्त होता है । भावार्थ - चौथी पीढ़ी तक के सर्पिड देशान्तरोंमें हों तो उन्हीं को देशभेद से ... सूतक लगता है, पुत्रको नहीं ॥ ६९-७० ॥ पितरौ चेन्मृतौ स्यातां दूरस्थोऽपि हि पुत्रकः । श्रुत्वा तद्दिनमारभ्य पुत्राणां दशरात्रकम् ॥ ७१ ॥

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