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सोमसेनभट्टारकविरचितं
भोगभूमिके पुरुष आर्य कहलाते हैं वे आर्य पुरुष जत्र दान देकर भोग भूमिमें जन्म लेते हैं तब वे सात दिनतक-पहले सप्ताह में तो ऊपरको मुंह किये सोये रहते हैं और अपना हाथका अंगूठा चूषते रहते हैं । इसके दूसरे सप्ताहमें, पृथिर्वापर पैरों से रेंगते हैं- धीरे धीरे घुटनों के बल चलते हैं । इसके बाद तीसरे सप्ताह में मीठे मीठे वचन बोलते हैं और लड़खड़ाते हुए चलने लगते हैं। चौथे सप्ताह में वे स्थिर रूपसे पैर रखते हुए ठीक ठीक चलने लगते हैं । इसके बाद पांचवें सप्ताह में गाना बजाना आदि कलाओंसे तथा लावण्य आदि गुणोंसे सुशोभित हो जाते हैं । इसके बाद छठे सप्ताह में युवा बन जाते हैं और अपने इष्ट भोगोंके भोगने में समर्थ हो जाते हैं और इसके बाद सातवें सप्ताहमें वे सम्यग्दर्शनके ग्रहण करनेके योग्य हो जाते हैं । ग्रन्थकार अपि शब्द से आश्चर्य प्रगट करते हैं कि देखो दानका क्याही माहात्म्य है जिससे वे लोग भोगभूमिमें जन्म लेकर थोड़े ही दिनोंमें कैसे योग्य बन जाते हैं ॥ ११९ ॥
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दानके भेद ।
आहारशास्त्रभैषज्याभयदानानि सर्वतः ।
चतुर्विधानि देयानि मुनिभ्यस्तत्त्ववेदिभिः ॥ १२० ॥
वस्तु स्वरूपको 'जानने वाले पुरुष, आहारदान, शास्त्रदान, औषधदान और अभयदान ये चार प्रकारके दान मुनियोंके लिए देवें ॥ १२० ॥
प्रत्येक दान के फल |
ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः ।
अन्नदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेपजाद्भवेत् ॥ १२१ ॥
ज्ञानदान - शास्त्रदानके देनेसे ज्ञानवान हो जाता है । अभयदानके देनसे
भय दूर होता है। आहार दानके देनेसे वह सुखी होता है और औषधदानकं देनेसे व्याधि रहित
नीरोग होता है ॥ १२१ ॥ अथोत्तर पुराणे - उत्तर पुराण में ऐसा कहा है कि
शास्त्राभ्यान्नदानानि प्रोक्तानि जिनसत्तमैः । पूर्वपूर्वबहूपात्तफलानीमानि धीमताम् ॥ १२२ ॥
सर्वज्ञदेवने शास्त्रदान अभयदान और अन्नदान ये तीन दान कहे हैं। जिनमें से आहार दानसे अभयदान और अभयदानसे शास्त्रदानका फल अधिक है ॥ १२२ ॥
कुदान |
कन्या हस्तिसुवर्णवाजिकपिलादासीतिलाः स्यन्दनं
क्ष्मा गेहं प्रतिबद्धमत्र दशधा दानं दरिद्रेप्सितम् ।
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