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त्रैवर्णिकाचार ।
२४५ वस्त्रभूपणशय्याश्च भोग्यभोजनपात्रकम् । क्षालयेच्छुचिभिस्तोयै रजकेन यथाविधि ॥ १०२ ॥ जन्मादिपञ्चमे पष्ठे निशीथे बलिमाहरेत् । अर्चयेदष्टदिक्पालान्गीतवाद्यसशस्त्रकैः ॥ १०३ ॥ कृत्वा जागरणं रात्रौ दीपैश्च शान्तिपाठकैः।
द्वारे द्वितीयभागे तु सिन्दूरैश्वापि कज्जलैः ॥ १०४ ।। मसतिगृहमें चार अंगुल प्रमाण मिट्टी डालकर मिट्टी और गोबरसे लीपे। पांच कल्कयुक्त उग्ण जलसे उस बच्चे और प्रसूताको स्नान करावे। यह स्नान पवित्रताके लिए तीन तीन दिन बाद प्रसवसे दशच दिन तक करावे । प्रसूताके कपड़े, आभूषण, पलंग, भोजन करनेके वर्तन आदिको विधिपूर्वक पवित्र जल तथा मिट्टी से धोये और मांजे । घोबीसे धुलवाने योग्य वस्तुओंको धोवीसे घुलावे । जन्मके पांचवें अथवा छठे दिन दशदिक्पालोंकी पूजा कर बलि दे । रात्रिमें दीपक लगाकर शान्तिपाठी द्वारा जागरण करे । दरवाजेके दूसरी ओर सिन्दूर तथा कजलकी टिपकी वगैरह लगावे ।। १०.--१०४॥
जननाशौच (जन्मके सूतक) की मर्यादा। पमतदशमे चाहि द्वादशे वा चतुर्दशे ।
मृतकाशौचनुद्धिः स्याद्विमादीनां यथाक्रमम् ।। १०५ ॥ प्रतिके दशवें दिन ब्राह्मणों, बारहवें दिन क्षत्रियों और चौदहवें दिन वैश्योंकी जननाशौचजन्मके सूतककी शुद्धि होती है। भावार्थ पुत्र-पुत्रीका जन्म होने पर दश दिनतक ब्राह्मणोंके, बारह दिनतक क्षत्रियोंके और चौदह दिनतक वैदयोंके सूतक रहता है || १०५ ॥
प्रसूतिगृहे मासैकं दायादानां गृहेषु च । '
दशदिनावधि यावन्न गच्छेमुक्तये यतिः ।। १०६ ।। प्रतिके घरपर एक महीनेतक और उसके दायादों-भाई-बांधवोंके घरपर दश दिन तक मुनि आहारके लिए न जायें | || १०६ ॥
पञ्च दिनानि चेटीनां सूतकं परिकीर्तितम् । स्वामिगृहे मसूताश्चेद्धोटकीनां तथैव च ॥ १०७॥ उष्ट्री गौमहिपी छागी प्रसूता चेद्गृहे यदा ।
दिनमेकं परित्याज्यं वहिश्चेन हि दोपभाक् ॥ १०८॥ यदि कोई दासी अपने स्वामीके घरपर प्रसूत हुई हो तो उस घरमें पांच दिनतक सूतक रहता है। इसी तरह घोड़ीका भी पांच दिनतक सूतक रहता है। उँटनी, गाय, भैंस और बकरीका एक एक दिनका सूतक रहता है । यदि ये सब स्वामौके घरसे बाहर प्रसूत हुई हों तो कुछ भी सूतक नहीं है ॥ १०७-१०८ ॥