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त्रैवर्णिकाचार |
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अर्थात् कालशुद्धि, अग्निशुद्धि, भस्मशुद्धि, मृत्तिकाशुद्धि, गोमयशुद्धि, जलशुद्धि, ज्ञानशुद्धिं और निर्विचिकित्सत्वशुद्धि के भेदसे लौकिक शुचिता --- पवित्रता आठ प्रकारकी है। यद्यपि गोमय शरीर से उत्पन्न होता है, तथापि वह लोकमें पवित्र माना गया है। यथा: --- शरीरजा अपि गोमय-गोरोचना -दुतिदन्त- चमरीबाल - मृगनाभि- खड्गिविषाण- मयूरपिन्छ सर्पमाण- शुक्ति-मुक्ताफलादयो लोकेषु शुचित्वमुपागताः । - चारित्रसार ।
इसका आशय यह है कि, प्राणियोंके शरीर से उत्पन्न होते हुए भी गोमय, गोरोचना, हाथीके दांत, चमरी गायके बाल, कस्तूरी, गॅडेके सॉंग, मयूरपंखको पिच्छि, सर्पके मस्तककी मणि, सीप, मोती आदि वस्तुएं लोकगें शुचिता - पवित्रताको प्राप्त हुई हैं। आदि शब्द से शंख, रेशम आदि भी समझना चाहिये ।
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इससे यह फलितार्थं निकला कि, लोग गोमय और गोमूत्रको पवित्र मानकर देवता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं, यह लोकमूढ़ता है । उससे भूमि-शुद्धि करना आदि लोकमूढ़ता नहीं है । जैसी लोक में चंद्रसूर्यकी पूजा की जाती है वैसी पूजा करना लोकमूढ़ता है । पर जिनप्रतिष्ठा आदिके समय उनका सत्कार करना लोकमूढ़ता नहीं है । यहां अभिप्रायका भेद है । सर्वसाधारण अनि देवमानकर नमस्कारादि करना लोकमूढ़ता है । परंतु जिनयश-संबंधी आहिताग्नि आदि तीन तरहकी अनिकी पूजा करना, उसकी भस्मको शिरपर चढ़ाना, नमस्कार करना लोकमूढ़ता नहीं है । इसी तरह सर्वसाधारण पर्वतोंकी पूजा करना लोकमूढ़ता है । परंतु सम्मेद शिखर, गिरनार, शत्रुंजय, तारंगा आदि पर्वतांकी पूजा करना लोकमूढ़ता नहीं है। यज्ञोपवीत संस्कार के समय बोधि ( बड़ ) वृक्षकी पूजा, चैत्यवृक्षकी पूजा, जिन-मंदिरकी भूमिकी पूजा करना आदि भी लोकमूढ़ता नहीं है । सर्वसाधारण अमि, वृक्ष, पर्वत आदि पूज्य क्यों नहीं और विशेष विशेष कोई कोई पूज्य क्यों हैं ? इसका उत्तर यह है कि जिनसे जिनभगवानका संबंध है वे पूज्य हैं; अन्य नहीं । अख, लोकमूदत्ता की संभवता - असंभवताका विचार बुद्धिमानोंको स्वयं कर लेना चाहिए ।
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देवमूढ़ता | वरोपलिप्सयाऽऽशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ ३१ ॥
वरकी इच्छा से आशावान होकर राग-द्वेषसे महामलीन कुदेवोंकी उपासना-भक्ति करनेको देव • मूढ़ता कहते हैं ॥ ३१ ॥
भावार्थ- मुझे अपने वांच्छित इष्ट फलकी प्राप्ति हो, ऐसी इसलोक-संबंधी फलकी इच्छा कर रागद्वेपसे मलीन देवोंकी उपासना करनेको स्वामिसमन्तभद्राचार्य देवमूढ़ता बतलाते हैं। वह अक्षरशः ठीक है। इसमें कोई भी तरह की बाधा नहीं है । परंतु विचार यह है कि ऋषिप्रणीत हमारे बड़े बड़े पूजाशास्त्रों, स्नानशास्त्रों, प्रतिष्ठापाठ आदिमें सर्वत्र शासनदेव का पूजन पाया जाता है । पूजनका क्रम इस विषयके सभी शास्त्रोंमें वैसा ही है, जैसा इस शास्त्र के चतुर्थ अध्यायमें बताया गया है। फर्क है तो सिर्फ इतना ही कि, किसीमें विस्तारको लिये हुए और किसीभ संक्षेपताको लिये हुए वर्णन किया गया है। तब यह विचार उपस्थित होता है कि शास्त्रों में यह परस्पर विरोध कैसा ? परंतु पक्षपातको छोड़कर विचार किया जावे तो, यद्यपि यह निर्विचार