Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 398
________________ त्रैवर्णिकाचार 1.. ३५९ आहार देते हुए को बीच में ही कोई रोक दे तो वह आहार मुनियोंको नहीं देना चाहिए । निषेध करनेपर भी य दे कोई दे तो - - वह आधार निषिद्धनामक महादोषसे संयुक्त माना गया हैं । भावार्थ -- निषिद्ध आहारके व्यक्तेश्वर, अव्यक्तेश्वर, व्यक्ताव्यक्तेश्वर, व्यक्तानीश्वर, अव्यक्तानीश्वर, व्यक्ताव्यक्तानीश्वर-ऐसे छह भेद हैं। आहार देते हुएको इनमें से कोई रोक दे तो वह आहार निषिद्ध दोष कर संयुक्त है, ऐसा आहार मुनीश्वरों को नहीं लेना चाहिए; क्योंकि इसमें विरोधादिक दोष देखे जाते हैं ॥ ९१-९२ ॥ अभिहित दोष | यस्मात्कस्माद्विना पंक्त्या गृहादष्टमतः परम् । आनीतं गृह्यते चान्नं तदेवाभिहितं मतम् ।। ९३ ।। • पंक्ति स्वरूप तीन अथवा सात घरोंको छोड़कर जिस किसी घरसे आया हुआ भोजन अथवा पंक्तिरूप घरों में भी अष्टमादि घरोंसे आया हुआ भोजन अभिहित दोषयुक्त माना गया है। भावार्थजिस समय आहार ले रहे हों उस समय कोई दूसरा पुरुष भी अपने घरसे आहार लाकर भक्तिभावसे दे तो जिस घरमें आहार ले रहे हों उस घर से पंक्तिरूप तीन अथवा सात घर तकका आया हुआ आहार मुनि ले सकते हैं इसमें कोई दोष नहीं है; परंतु पंक्तिरूपं तीन या सात घरोंको छोड़कर अष्टमादि घर से आया हुआ या विना ही पंक्तिके किसी भी घरसे आया हुआ अन्न अभिहित दोषसंयुक्त है । ऐसा अन्न मुनियों को ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ९३ ॥ उद्भिन्न दोष । घृतादिभोजनं सारं मुद्रितं कर्दमादिना । उद्भिद्य दीयते दोष उद्भिन्नः परिपठ्यते ॥ ९४ ॥ मिट्टी, लाख आदिसे वर्तनका मुख मूंद दिया गया हो ऐसे वर्तनमें से उसपरकी मिट्टी लाख आदिको हटाकर घृत, गुड़, शक्कर आदि सार वस्तु निकाल कर देना उद्भिन्न दोप है ॥ ९४ ॥ आच्छाद्य दोष । संयतान् परमान् दृष्ट्वा राजचोरादिभीतितः । दानं ददाति स प्रोक्तों दोष आच्छाद्यनामर्कः ।। ९५ ।। राजा, चौर आदिके भयसे संयतोंको आहार देना आच्छाद्य नामका दोष है। भावार्थ-नब संयतोंको भिक्षाजन्यश्रम, देखकर राजा या राजासदृश कोई तेजस्वी अथवा चौरादि गृहस्थोंको या तो तुम आये हुए मुनिगणको आहार दो नहीं तो हम तुम्हारा धन-माल छीन लेंगे या लूट लेंगे अथवा शहर से बाहर निकाल देंगे, इस तरह डराकर आहार दिलानें तब आहार देना सो यह आच्छे' नामक दोष है ।। ९५ ॥, मालारोहण दोष । निःश्रेण्यादिकमारुह्यः द्वितीयगृहभूमितः । 'आदाय दीयते ह्यनं तन्मालारोहणं मतम् ॥ ९६ ॥ : ९ श्लोकका पाठान्तर ऐसा भी है: नृपादीनां भयं श्रुत्वा मुनीनां हृतमौनतः । गुप्तवृत्या तु यद्दत्तं - दोष आच्छाद्यनामकः ॥ ..

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