Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 407
________________ ....... ... ... ............. ... ... ... .. ३६८ सोमसेनभट्टारकविरचित दूसरा मत। दिनाचेत् पोडशादर्वाङ्नारी या चातियौवना। . पुना रजस्वलाऽपि स्याच्छुद्धिः स्नानेन केचन ।। १२ ।। जो कोई अत्यन्त यौवन स्त्री सोलह दिनोंसे पहले पुनः रजस्वला हो जाती है उसकी स्नान मात्रसे शुद्धि होती है। भावार्थ-रंजस्वला होकर सोलह दिन पहले यदि फिर रजस्वला हो जाय तो उसे पुनः तीन दिन तक आशौच धारण करनेकी आवश्यता नहीं-वह सिर्फ स्नान करलेनेसे ही शुद्ध मानी गई है, ऐसा दूसरा मत है ॥ १२ ॥ रजस्वलायाः पुनरेव चेद्रजः मान्यतेऽष्टादशवासराच्छुचिः। . अष्टादशाहे यदि चेदिनद्वयादेकोनविंशे त्रिदिनात्ततः परम् ।। १३ ।। यदि किसी रजस्वला स्त्रीके अठारह दिनसे पहले पुनः रजोदर्शन हो जाय तो वह शुद्ध है। परन्तु यदि वह अठारहवें दिन रजस्वला हो तो वह दो दिनसे शुद्ध होती है-दो दिन बीत जानेपर स्नानकर पवित्र होती है। और यदि उन्नीसवे आदि दिनोंमें रजस्वला हो तो तीन दिनसे शुद्ध होती है ॥ १३ ॥ ____ रनोयुताष्टादशवासरे पुनः प्रायेण या यौवनशालिनी वधुः । व्यहेण सा शुद्ध्यति देवपित्र्ययो रजोनियुक्ताशुचिरातवे सति ॥ १४ ॥ जो भर-यौवन स्त्री अठारहवें दिन पुनः रजस्वला होती है वह वद्यपि दो दिन आशौच धारण कर शुद्ध हो जाती है, तो भी देवकर्म और पित्र्यकमके योग्य वह तीसरे दिन होती है। क्योंकि रजलाव होते हुए वह रजोयुक्त है, अतः अशुचि-अशुद्ध है ॥ १४ ॥ रजस्वला यदि स्नाता पुनरेव रजस्वला। . अष्टादशदिनादागशुचित्वं न निगद्यते ॥ १५॥ यदि कोई स्त्री चतुर्थ स्नानकर अठारह दिनसे पहले पुनः रजस्वला हो जाय तो वह अपवित्र नहीं कही जाती। यह तीसरा ही मत है ॥ १५ ॥ . . . रजस्वलाका आचरण । काले ऋतुमती नारी कुशासने स्वपेत्सती। ... एकांतस्थानके स्वस्था जनस्पर्शनवर्जिता ॥ १६ ॥ . मौनयुक्ताऽथवा देवधर्मवाविवर्जिता। . मालतीमाधवीवल्लीकुन्दादिलतिकाकरा ॥ १७॥ रक्षेच्छीलं दिनत्रयं चैकभक्तं विगोरसम् । अञ्जनाभ्यङ्गनग्गन्धलेपनमण्डनोज्झिता ॥ १८॥ देवं गुरुं नृपं स्वस्य रूपं चं दर्पणेऽपि वा। . . . न पश्येत्कुलदेवं च नैत्र भाषेत तेः समम् ॥ १९॥ . . . .

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