Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 404
________________ चैवर्णिकाचार | इत्येवं कथितो धर्मो मुनीनां मुक्तिसाधकः । संक्षेपतो मया ग्रन्थे वर्णाचारमसङ्गतः ॥ १२१ ॥ इस तरह मैंने वर्णाचारके प्रसंगको पाकर इस ग्रंथ में संक्षेपसे मुक्ति के साधक मुनिधर्मका वर्णन किया || १२१ ॥ " ३६५ आदौ श्रीवर्णलाभः सुखकरकुलचर्या गृहाधीशता च । सर्वेभ्यश्व प्रशान्तिर्मनसि कृतगृहत्यागता वा सुदीक्षा ॥ अध्यायेऽस्मिन्गरिष्ठाः शिवसुखफदा वर्णिता धर्मभेदा । ये कुर्वन्तीह भव्याः सुरनरपतिभिस्ते लभन्ते सुपूजाम् ॥ १२२ ॥ इस बारट्वें अध्यायमें मोक्ष-सुखरूप फल देनेवाली धर्मका भेद-स्वरूप वर्णलाभ, कुलचर्या, गृहीता, प्रशान्ति, गृहत्याग और दीक्षा-इन क्रियाओं का वर्णन किया। जो भव्य इन क्रियाओं को करता है वह इन्द्र और राजाओं के द्वारा पूजा जाता है ॥ १२२ ॥ धर्मोपदेश प्रवदन्ति सन्तो धन्यास्तु ते ये सुचरन्ति भव्याः । पूज्याः सुरैर्भूपतिभिश्च नित्यं तेषां गुणान् वाञ्छतिः सोमसेनः ॥ १२३ ॥ सजन पुरुष धर्मोपदेश करते हैं । वे पुरुष धन्य हैं जो उस उपदेशका आचरण करते हैं । तथा वे देवों और राजाओं द्वारा पूजे जाते हैं । उनके उन सद्गुणोंकी सोमसेनसूरि वाञ्छा करता है ॥ १२३ ॥ 1 इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे भवणीचार निरूपणे भट्टारकश्री सोमसेन विरचिते वर्णलाभादिपञ्चपावर्णनो नाम द्वादशोऽध्यायः समाप्तः ॥ १२ ॥

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