Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 402
________________ त्रैवर्णिकाचार। ..... ............. निक्षिप्त-दोष। - सचित्तवारिभिरद्धि प्रसिच्यानं तु दीयते। ' निक्षिप्तदोष इत्युक्त सर्वथागमवर्जितः ।। १११॥ अप्रासुक जल, पृथिवी, अमि आदि पर रखा हुआ अन्न देना निक्षित-दोष है। ऐसा आहार लेना आगममें सर्वथा वर्जनीय बताया है ।। १११ ॥ सावित-दोष । . .. घृततक्रादिकं चैव स्रवत्येवानकं बहु । तदनं गृह्यतेऽत्यर्थं सावितो दोष उच्यते ॥ ११२ ॥ अत्यन्त झरता हुआ पतला तक (मठा-छाछ ), घृत आदि भोजन लेना, सो स्रावित-दोष है। क्योंकि ऐसा अन्न हाथमें ठहर नहीं सकता। अतः वह हाथमेंसे नीचे जमीनपर गिर पड़ता है, जिससे जीवोंकी हिंसा होने की संभावना है। अतः ऐसा सावित आहार मुनियों को नहीं लेना चाहिए ॥ १२ ॥ अपरिणत-दोप। त्रिफलादिरजोभिश्व रसैश्चैव रसायनैः । . गृह्णात्यपरिणतं वै दोषोऽपरिणतः स्मृतः ॥ ११३ ॥ . त्रिफला आदि चूर्णोद्वारा जिसका रस, वर्ण, गंध और स्वाद नहीं बदला है ऐसा जल ग्रहण करना अपरिणत दोष है । भावार्थ-तिल प्रक्षालित जल, चांवल धोया हुआ जल, तपाकर ठंडा किया गया ऐसा गर्म जल, चने घोया हुआ जल आर तुष प्रक्षालित जल जिसके खास रंग, गंध और स्वाद नहीं बदल पाए ह, तथा हरीतकी चूर्ण आदिके डालनेसे भी जिसके वर्ण, गंध और रस नहीं बदले हैं वह सब अपरिणत है। ऐसा जल मुनियोंको नहीं पीना चाहिए ॥ ११३॥ साधारण-दोप। गीतनृत्यादिकं मार्गे कुर्वन्नानीय चान्नकम् । गृहे यद्दीयते दोपः स साधारणसञ्जकः ॥ ११४ ॥ मार्गमें गीत गाते हुए, नृत्य आदि करते हुए आहार लाकर घरपर देना साधारण नामका दोप है ।। ११४॥ दायक-दोप। रोगी नपुंसकः कुष्टी उच्चार मूत्रलिप्तकः । गर्भिणी ऋतुमत्येव स्त्री ददात्यन्नमुत्तमम् ॥ ११५ ॥ आशौचाचारसंकीनः स दोपो दायकस्य वे। - रोगी, नपुंसक, कोढी, टट्टी-पेशाब करके आया हुआ, गर्मिणी स्त्री और रजस्वला स्त्रीके हायका प्रासुक भी आहार ग्रहण करना सो अशौचाचारयुक्त दायक-दोग है। ऐसे दाताओंक हायका .आहार नहीं लेना चाहिए । इनके अलावा इन दाताओंके हाथका भोजन भी नहीं लेना चाहिएजो प्रसूति हो, मद्य-पान किए हुए हो, मुर्दा जलाकर आया हो अथवा मृतक-संतकवाला दो,

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