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सीमसेनभट्टारकविरचित
वैद्य, मान और मायादोप। कृत्वा भेषजमत्यन्नं वैद्यदोपः स उच्यते । आत्मपूजादिकं लोकान् प्रतिपाद्यातियत्ननः ।। १०५ ॥ उदरं पूरयत्येव मानदोषो विधीयते ।
मायां कृत्वाऽन्नमादत्ते मायादोपः प्रकीर्तितः।। १०६॥ बालचिकित्सा, तनुचिकित्सा; रसायनचिकित्सा, विषचिकित्सा, भूतचिकित्सा आदि आठ. प्रकारके शास्त्रोद्वारा औषधोपचार करके आहार ग्रहण करना वैद्यदोष है । जनसमूहके प्रति अपनी पूजा-प्रतिष्ठा आदिका कथन कर आहार ग्रहण करना मानदोष है। भावार्थ--गर्व करके अपने लिए भिक्षा उत्पन्न करना मान-दोष है । तथा मायाचार करके आहार लेना मायादोष कहा गया
- विद्याशेप और मंत्रदोप। । कृत्वा विद्याचमत्कार योऽत्ति विद्याख्यदोपकः ।
मंत्रयन्त्रादिकं कृत्वा योऽत्ति वै मन्त्रदोपकः ॥ १०७ ।। विद्याका चमत्कार दिखाकर जो आहार ग्रहण करना है वह विद्या नामका दोष है । तथा आहा. रप्रद व्यन्तरादि देवोंको मंत्र यंत्र आदिद्वारा वशकर जो आहार ग्रहण करना है वह मंत्रदोष हैं।। १०७॥
चूर्णदोप और वशीकरण दोष । दत्वा चूर्णादिकं योऽत्ति चूर्णदोपः स इप्यते ।
वशीकरणकं कृत्वा वशीकरणदोपकः ॥ १०८॥ नेत्रांजन आदि देकर जो आहार ग्रहण करता है वह चूर्णदोपवाला है। तथा जो वशीभूत नहीं उनको वश करना वशीकरण-दोष है । यहांतक सोलह उत्पादन दोष कहे | आगे दश एपणा दोषोंका कथन करते हैं ॥ १०८॥
शंका-दोप और पिहित-दोष) . अस्मदर्थ कृतं चान्नं न वा शङ्काख्यदोपकः।
सचित्तेनावृतं योति पिहितो दोप उच्यते ॥ १०९ ॥ यह आहार मेरे भक्षण करने योग्य है अथवा नहीं यह शंका नामका दोष है। तथा जो सचित्त कमल पत्रादिसे ढके हुए आहारको ग्रहण करता है वह पिहित दोषयुक्त आहार करता है ॥१०॥
संक्षिप्त-दोप। स्निग्धेन वा स्वहस्तेन देयं वा भाजनेन वा । • संक्षिप्तदोषो निर्दिष्टो वर्जनीयो मनीषिभिः ॥ ११० ॥ घी, तेल आदिसे चिकने हाथोंसे अथवा कच्छी आदि वर्तनसे भोजन परोसना, सो संक्षिप्त दोष है। ऐसे दोपका मुनियोंको त्याग करना चाहिए । इसमें संमूर्च्छनादि सूक्ष्म-दोष हैं; अतएव यह दोष है ।। ११०॥