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सोमसेनभट्टारकविरचित
व्याधितां स्त्रीमना वन्ध्या उन्मत्ता विगतार्तवा | अदुष्टा लभते त्यागं तीर्थतो न तु धर्मतः ॥ १९८ ॥
व्याधिता--जो वर्षोंसे रोग-प्रसित हो, स्त्रीप्रजा - जिसके केवल कन्याएं पैदा होती हाँ, वन्ध्याजिसके संतति होती ही न हो, उन्मत्ता- - जो नसा करनेवाली हो, विगतातंत्रा- जो रजस्वला न होती हो और अदुष्टा - उत्तम स्वभाववाली हो परंतु जिसके संतति न होती हो, ऐसी स्त्रियां कामभोग के लिए त्याज्य हैं, धर्मकृत्योंके लिए नहीं । भावार्थ - ऐसी स्त्रियोंके साथ संयोगादि क्रिया न करें धर्मकृत्य करने में कोई हानि नहीं ॥ १९८ ॥
सरूपां सुमजां चैव सुभगामात्मनः प्रियाम् ।
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धर्मानुचारिणीं भार्या न त्यजेद्गृहसवती ॥ १९९ ॥
जो रूपवती हो, जिसके संतति होती हो, जो भाग्यशालिनी हो, अपनेको प्यारी हो और जो धर्मकृत्योंमें सहचारिणी हो ऐसी उत्तम स्त्रीके होते हुए दूसरा विवाह न करे ॥ १९९ ॥
प्रमदामृतवत्सरादितः पुनरुद्वाहविधिर्यदा भवेत् ।
- विषमे परिवत्सरे शुभः समवर्षे तु मृतिप्रदो भवेत् ॥ २०० ॥
स्त्रीके मर जानेपर दूसरा विवाह यदि करना हो तो जिस वर्षमें वह मरी है उस वर्षसे लेकर किसी भी विषम वर्ष में विवाह करना शुभ माना गया है। तथा सम वर्षमें मृत्युप्रद माना गया है।
मतान्तरं - दूसरा मत ।
पत्नीवियोगे प्रथमे च वर्षे नो चेद्विवर्षे पुनरुद्वहेत्सः ।
अयुग्ममासे तु शुभपदं स्याच्छ्री गौतमाचा मुनयो बदन्ति ॥ २०१ ॥
पत्नीके मर जानेपर प्रथम वर्षमें विवाह करे। यदि प्रथम वर्षमें न कर सके तो दूसरे वर्ष में करे । परन्तु वह विवाह विषम महीनेमें किया हुआ शुभ करनेवाला होता है, ऐसा गौतमादि मुनि कहते हैं ॥ २०९ ॥
अपुत्रिणी मृता भार्या तस्य भर्तुर्विवाहम् ।
युग्माब्दे युग्ममासे वा विवाह हः शुभो मतः ॥ २०२ ॥
पुत्र उत्पन्न न हुआ हो और स्त्री मर गई हो तो उस स्त्रीके पतिका विवाह युग्म वर्ष अथवा युग्म मास में शुभ माना गया है ॥ २०२ ॥
प्रजावत्यां तु भार्यायां मृतायां वैश्यविप्रयोः ।
प्रथमेऽब्दे न कर्तव्यो विवाहोऽशुभदो भवेत् ॥ २०३ ॥
अगर पुत्रवती स्त्री मर जाय तो ब्राह्मण और वैश्य पहले वर्षमें विवाह न करें । क्योंकि स्त्री-मरण के प्रथम वर्ष में विवाह करना उनके लिए अशुभ होता है || २०३ ॥
अथ तृतीय भार्या - तीसरा विवाह |
अकृत्वाऽर्कविवाहं तु तृतीयां यदि चोद्वहेत् ।
विधवा सा भवेत्कन्या तस्मात्कार्य विचक्षणा ॥ २०४ ॥