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त्रैवर्णिकाचार।
उस पुरुषका पिता, सिद्ध-प्रतिमाकी पूजा कर और श्रावकोंका यथायोग्य सत्कार कर मुख्य मुख्य सजनोंकी साक्षीपूर्वक अपनी सम्पत्तिका हिस्सा उसे देवे ॥ ६ ॥
धनं ह्युपादाय समस्तमेतस्थित्वा गृहे स्वस्य पृथग्यथास्वम्।। कार्यस्त्वया दानपुरस्सरोऽङ्गासुखाय साक्षात् गृहिधर्म एव ।। ७ ॥ यथाऽस्मकाभिः सहधर्ममर्जितं यशोऽमलं स्वस्य धनेन यत्नतः । श्रियेऽथवाऽस्मत्पितृदत्तकेन वै तथा यशो धर्ममुपार्जय त्वकम् ।। ८॥
इत्येवमेतीनुशिष्य चैनं नियोजयदुत्तमवर्णलाभ। . स चाप्यनुष्ठातुमिहाईति स्वं धर्म सदाचारतयेति पूर्णम् ॥ ९॥ .
इति वर्णलामः।
और इस प्रकार उपदेश दे कि हे पुत्र ! इस अपने हिस्सेके धनको लेकर और अपने घरमें यथायोग्य अलहदा रहकर साक्षात्सुखके अर्थ दान-पूजापूर्वक गृहस्थधर्मका सेवन करना और जिस तरह हमने हमारे पिताके द्वारा दिये गये धनसे निर्मल कीर्ति और धर्मका यत्नपूर्वक उपार्जन किया है उसी तरह तू भी धर्म और यशका उपार्जन करना । इस तरह पिता अपने पुत्रको योग्य. शिक्षा देकर उसे वर्णलाम नामकी क्रिया में नियुक्त करे । वह पुत्र भी सदाचारसे परिपूर्ण अपने धर्मका अनुष्ठान करे । इस तरह वर्ण-लाभ क्रिया की जाती है ॥७-९॥
कुलचोका स्वरूप। पूजा श्रीजिननायकस्य च गुरोः सेवाऽथवा पाठके द्वेधा संयम एव सत्तप इतो दानं चतुर्षा परम् । कर्माण्येव पडत्र तस्य विधिवत्सद्वर्णलाभ शुभं
माप्तस्यैवमुशन्ति साधुकुलचर्या साधवः सर्वतः ॥ १० ॥ . जिनदेवकी पूजा करना, गुरुकी और उपाध्यायकी सेवा करना, प्राणसंयम और इंद्रियसंयम. इस तरह दो प्रकारके संयमका पालना, बारह प्रकारके तपश्चरणका करना और चार प्रकारके दान का देना-इन छह काँके विधिपूर्वक करनेको साधुजन प्रशस्त और शुभ वर्णलाभ . क्रियाको प्रास हुए पुरुपकी कुलचर्या कहते हैं। भावार्थ-देव-पूजा आदि छह कर्मोंके करनेको कुलचर्या या कुलधर्म कहते हैं । यह क्रिया वर्णलाभ क्रियाके बादमें की जाती है ॥ १०
__गृहीशिता क्रियाका स्वरूप। धर्मे दामोद्वहन् स्वकुलचर्या प्राप्तवानञ्जसा शास्त्रेण क्रियया विवाहविधिना वृत्त्या च मन्त्रैः शुभैः। स्वीकुर्याद्धि गृहेशितां स्वमनघं चौन्नत्यमेकं नयन् ...
नानाकाव्यकृतेन शुद्धयशसा लिप्सुयेशः सुन्दरम् ॥ ११॥ . इसके अनन्तर वह कुलचर्याको प्राप्त हुआ गृहस्थ, धर्ममें दृढ़ होता हुआ शास्त्रज्ञान, क्रिया'विवाहविधि, वृत्ति, और शुभ मंत्रोंद्वारा तथा उत्तम कविता और शुद्ध यशपूर्वक अपनी एक अदि,