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त्रीणकाचार।
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आयाः स्युः पद जघन्याः स्युमध्यमास्तदनु त्रयः ।
शेषौ द्वावुत्तमावुक्ता जैनेषु जिनशासने ॥ १५२॥ . इन ग्यारह प्रतिमाओं से पहलेकी छह प्रतिमाएँ जघन्य हैं, उसके बादकी तीन मध्यम है, : और बार्कीकी दो प्रतिमाएँ जैनौके जिनोक्त शास्त्रमें उत्तम कही गई हैं ।।.१५२ ॥
सब्रतानि गुरूक्तानि चेति श्रुत्वोपनीतवान् । ...
गृह्णीयाच यथाशक्ति अमात्र सुखावहम् ॥ १५३॥ ___ इस तरह वह यज्ञोपवीतधारी श्रावकका बालक, इस लोक और परलोकमें सुखदेनेवाले गुरु. मुखसे सुने हुए उपरोक्त प्रतोंको यथाशक्ति ग्रहण करे ॥ १५३ ॥
वाधादिविभयुक्तो गृहं गत्वा स धर्मधीः ।
ताम्बूलैः स्वजनान् सर्वोन्मानयेद्धमहेतवे ॥ १५४ ॥. इसके बाद वह धर्म-बुद्धि बालक, गाजे-बाजे आदि विभवके साथ घरपर जाकर अपने सारे स्वजाका धर्मके हेतु तांबूलद्वारा सत्कार करे ॥ १५४ ॥ ..
यज्ञोपवीतं कथितं मुनीन्द्र, रत्नत्रयं वा व्यवहाररूपम् । त्रिवर्गपुम्भिार्धियते मनोज्ञ, धर्मार्थकामाभिमुखैः सुखाय ॥ १५५ ॥
इस यज्ञोपवीतको मुनियरोंने बाह्य रत्नत्रय बताया है। इसलिए धर्म, अर्थ और कामके सन्मुख, तीनों वर्गों के मनुष्योंको सुखके लिए यह परम पवित्र सुन्दर यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए ॥ १५५ ॥
विद्याभ्यासः सदा कार्यः सतां मध्ये सुभूषणम् ।
सत्पूरुपै स्त्वदं मोक्तं सोमसनैः शिवाप्तये ॥ १५६ ॥ मनुष्यों को विद्याका अभ्यास हमेशह करना चाहिए । यह विद्या सज्जनोंका भूषण है । इसीका सज़न सोमदेवने सबके कल्याणके लिए कथन किया है ॥ १५६ ॥
इत्येवं कथितानि जनसमये सारव्रतानि क्षिती, ये कुर्वन्ति सुधर्मसञ्चितधियो धन्यास्तु ते मानवाः।। संसाराम्बुधिपारगाः शिवसुखं प्राप्ता इव प्रस्तुता,
देवेन्द्रादिमुरैनराधिपगणः श्रीसोमदः पुनः ॥ १५७ ॥ इस प्रकार जिनागमके अनुसार ये उत्तम व्रत कहे गये हैं। इनका जो धार्मिक पुरुष सेवन करते हैं वे धन्यवादके पात्र है । वे मानों संसार-समद्रसे पार होकर मोक्षसुखको ही प्राप्त कर चुके हैं, इस तरह इंद्रादि देवों, बड़े बड़े राजाओं तथा सोमदेवद्वारा स्तवन किये जाते हैं ॥ १५७ ॥
इतिश्रीधर्मरसिकशास्त्र त्रिवणाचारनिरूपणे भट्टारकश्रीसोमसेनविरांचते व्रतस्वरूपकथनियोनाम दशमोऽध्यायः समाप्तः ।