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त्रैवर्णिकाचार। निमित्त अपने कुटुंबियोंका सत्कार करनेमें जो खर्च पड़ा हो वह सर्व मय वृद्धि के कन्यादाता वरकों देवे । अतः इस लोकका अर्थ संप्रदायविरुद्ध नहीं है। परंतु जो लोग 'चतुर्थीमध्ये का अर्थ विवाह' हो चुकने के बाद चौथा दिन करते हैं उनका वह अर्थ अवश्य संप्रदायके विरुद्ध है ॥१७४॥ · .
प्रवरैक्यादिदोपाः स्युः पतिसङ्गादधो यदि ।
दत्तामपि हरेद्दद्यादन्यस्मा इति केचन ॥ १७५ ॥ ___अथवा किन्दी किन्हीं बपियोंका ऐसा भी मत है कि यदि पतिसंग-पाणिपीड़नसे पहले वरण: क्रिया में वर और कन्याके प्रवर (सीपगोत्र), गोत्र (वंशपरंपरा) आदि एक या सहश हों तो कन्यादाता उस वाग्दत्ता कन्याको उस वरको न देकर किसी भिन्न प्रवर, गोत्र आदि गुणवाले वरको देवे ॥ १७५ ॥
कली तु पुनरुद्राहं वर्जयेदिति गालवः ।
कस्मिंश्चिदेश इच्छन्ति न तु सर्वत्र केचन ॥ १७६ ॥ कलियुगमें एक धर्मपत्नीके होते हुए दूसरा विवाह न करे, ऐसा गालव ऋषिका उपदेश है। परंतु उनके इस उपदेशको किसी किसी देशमें कोई कोई मानते हैं, सब जगह सब लोग नहीं मानते । अथवा किसी किसी देशमें कोई कोई एक धर्मपत्नीके होते हुए भी दूसरा. विवाह स्वीकार करते हैं, सय देश में नहीं।
___भावार्थ-नागाण समाज में भी प्रथम विवाहिताको धर्मपत्नी माना है । उसके होते हुए द्वितीय विवाहिताको रतिवधिनी-भोगपत्नी कहा है। प्रथम विवाहिता सवर्णों होना चाहिए, ऐसा मनुका उपदेश। मनुफे उस उपदेशसे यह भी झलकता है कि प्रथम संवर्णाके. सायं पाणिग्रहण करना ही श्रेष्ठ है और यह प्रथम विवाह ही धर्मविवाह है । उसके होते हुए अन्य विवाह काम्यविवाह है। याशवल्क्यका मत है कि सवर्णा स्त्रीके होते हुए असवर्णा स्त्रीसे.धर्मकृत्य न कराये जावें । सवर्णाओंमें
भी धर्मकायोंमें प्रथम विवाहिताको नियुक्त करे, मध्यमा या कमिष्ठाको नहीं । इससे यह फलितार्थ निकला कि पहला सजाति कन्याके साथ विवाह करना ही श्रेष्ठ और धर्मविवाह है, द्वितीय नहीं । अतः इसी द्वितीय विवाहका गालव ऋपि निषेध करते हैं। वे दूसरा काम्यविवाह स्वीकार नहीं करते । कोई कोई बामण-दपि दो विवादोंको भी धर्यविवाह स्वीकार करते हैं और तृतीय विवाहका निषेध करते हैं। तब संभव है कि गालव वापि द्वितीय विवाहका भी निषेध करते हों। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। तथा वाषण संप्रदायमें कलियुगमे कई कृत्योंके करनेका निपेध किया है। जैसे-पतिके मरजानेपर पुत्र न हो तो देवरसे एक पुत्र उत्पन्न करना, असवाँके साथ विवाह करना आदि । अत
1-प्रथमा धर्मपत्नी स्याद्वितीया रतिवर्धिनी । दृष्टमेव 'फलं तत्र नामुष्टमुपपद्यते ॥ २-सवर्णा द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि । कामतस्तु प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो पराः ॥ ३--सत्यामन्यां सवर्णायां धर्मकार्य न कारयेत् । सवर्णासु विधौ धन्ये ज्येष्ठया न विनेतरा ॥
४-ब्राह्मचर्य समाप्यका भार्या यो द्वितीयां तथा । तृतीयां नो वहेविन इति धर्मकृतो विदुः ॥ .., .५-विधवायां प्रजोत्पत्ती देवरस्य नियोजनं । ६ -कन्यांनामसंवर्णानां विवाहश्च द्विजन्मभिः । ।
न कर्तव्यः कलौ युगे इति संबंधः ।