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त्रैवर्णिकाचार। उपनयनके समय आचार्यके पैरोंसे छह, पांच अथवा सात पैंड लंबी चौड़ी तथा बालकके 'हाथरी एक हाथ ऊंची. ऐसी चौकोन एक वेदी बनाई जाय ॥ १० ॥
लम्बा भित्तिहिस्ता च ह्युन्नता त्रिंशदंगुला । प्रत्यक् वेद्या विवाहे च विस्तृता द्वादशांगुलम् ॥ १०१॥ अष्टावष्टी प्रकुर्वीत सोपानान्यथ पार्श्वयोः।
तदग्रे कलशाकारमिति पूजाविदा मतम् ॥ १०२॥ : वेदीके पश्चिम भागमें एक दिवाल खड़ी करे । जो दो हाथ लंबी, तीस उंगल-सवा हाथ '. ऊंची और बारह उंगल-एक बिलस्त चौड़ी हो । उस दिवालके दोनों ओर आठ आठ सोपान । (सीढ़ी) बनवावे | उन दोनों तरफके सोपानोंके सामने कलशों जैसे आकार बनवावे । ऐसा पूजाकारोंका मत हैं ॥ १०१-१०२ ॥
अथ पीट-पीठका प्रमाण । अष्टत्रिंशांगुलं दीर्घमुन्नतं स्यात्पडंगुलम् । ' अष्टांगुलं च विस्तारं कुर्यादौदुम्बरादिना ॥ १०३ ॥ अड़तीस उंगल लंबा, आठ उंगल चौड़ा और छह उंगल ऊंचा ऊंबर आदिकी लकड़ीका एक पट्टा बनवावे ॥ १.३ ।।
विवाहः स्यादिने यस्मिन्दिवा वा यदि वा निशि। ' होमस्तत्रैव कर्तव्यो यथानुक्रमणेन तु ॥ १०४॥ दिनमें अथवा रातमें जिस दिन विवाह हो, उसी दिन, जो जो क्रियाएं करनेकी हैं उन्हें क्रमवार करते हुए होम करे ॥ १०४ ॥
तावद्विवाहो नैव स्याधावत्सप्तपदी भवेत् ।
तस्मात्सप्तपदी कार्यो विवाहे मुनिभिः स्मृता ॥ १०५॥ जवतक सप्तपदी (भाँवर ) नहीं होती तबतक विवाह हुआ नहीं कहा जाता। इसलिए विवाहमें सप्तपदी अवश्य होना चाहिए । ऐसा मुनियों का कहना है ।। १० : ।।
विवाहहोमे प्रक्रान्ते कन्या यदि रजस्वला । ।
त्रिरात्रं दम्पती स्याता पृथक्शय्यासनाशिनौ ॥१०६॥ . विवाहसंबंधी होम शुरु हो जानेपर यदि कन्या रजस्वला हो जाय तो तीन राततक उम दोनों दंपतियोंके शय्या, आसन, भोजन सब जुदा जुदा रहना चाहिए । भावार्थ-रजस्वलाके समय
कन्याकी ये सब क्रियाएं तेहरवें अध्यायमें कही जानेवाली रजस्वला विधिके अनुसार होनी • चाहिए ॥ १०६ ॥ __... चतुर्थेऽहनि संस्नाता तस्मिन्ननौ यथाविधि ।
. . . . विवाहहोमं कुर्यात्तु कन्यादानादिकं तथा ॥ १०७॥ .. :
चौथे दिन जब वह कन्या स्नान कर चुके तब उसी अमिमें विधिपूर्वक होम किया जाय । तथा कन्यादान आदि विधि जो रह गई हो वह भी पूर्ण की जाय ।। १०७॥ .