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सोमसेनभट्टारकविरचितनवीनं घट पंचभिचाररत्ने, स्तथा सत्यभिर्धान्यकैः पूर्यमाणम् । सदर्भ सर्व पिधानेन युक्तं, विचित्रेण संस्थापयेचारु पनी ॥ १५३ ॥ विशाल और मनोज्ञ समान-भूमि-भागके ऊपर जो संपूर्ण शोभा-संयुक्त विवाह मंडप बनाया जाता है उसपर आठ पांखरीका एक कमल यनावे। कमलके वीचमें एक बड़ी भारी कर्णिका बनावे । कमलके चारों तरफ पुष्करिणी ( तालाब) का आकार बनावे और उसके चारों तरफ चौकोन चार दरवाजे बनावे । कमलकी पंखुरियों और दरवाजोंक ऊपर पांच तरहके रंग भरे । कर्णिकाके भीतर पांच मंडल काड़े। उसपर वधू पांच तरहके रत्नों, सात प्रकारके धान्योंसे भरकर तथा दर्भ और दूब रखकर और ढक्कन लगाकर एक नवीन कलश रक्खे ॥ १५१-५३ ॥
दलेष्वष्टलु माक्प्रभृत्यान्हयेषु, लिखेदष्टनागान् स्वमंत्रः प्रसिद्धान् । अलंकृत्य साक्षावहिर्मण्डलेभ्यः, सदीशानकोणादिषु मायशोऽमी ॥ १५४॥ घटाः स्थापनीयाश्चतुःसंख्ययाऽतो, मुखेष्वप्यमीषां नवाः पल्लवाश्च । प्रमूनस्तथा मालया चारुवस्त्रैः, सहादर्शकैः शोभमानान विशेषात् ।। १५५ ।। वहिः माक्सपूर्वेभ्य एतेभ्य एव, स्वयं द्वारकेभ्यो गजो लेखनीयः । सुचूर्णहेयो वा गजस्तद्वदुक्षा, सपुच्छ। सशृङ्गः सलिङ्गः सकर्णः ॥ १५६ ॥ तथा नैऋते कन्यकापित्रभीष्टपतापादि गोत्रं तथाऽनर्दिशीह । ककुभ्याशुगस्यैव गोत्रं वरस्य, प्रतापादि लेख्यं तथेशानकोणे ॥ १५७ ।। सदित्येवमेतन्महामण्डलं वेशपूजार्चनायोग सद्रव्यपूर्णम् । अमत्रैस्तथैवांकुराणां शुभानामलंकृत्य चाचार्यसाधूपदेशात् ॥ १५८ ॥ सरागेऽपि सन्ध्यामिधाने हशीह, वरस्यापि वध्वाः शुभे स्नानके वा। दृढं चासनं युज्यते चादरेण, सुमाङ्गल्यवादित्रगीतादिपूर्वम् ॥ १५९ ॥ क्रिया नापितस्यैव तैलावमर्दो, जलस्थानमेतादि पश्चाद्विधेयम् ।
अलंकारशोभा सुवस्त्रैः सुमाल्यै,-स्ततः स्थापनं पीठयुग्मं पृथक् वै ॥ १६० ॥ कमलके पूर्वादि आठों दिशाओंके आठों पत्तोंपर अपने अपने मंत्रोंसे प्रसिद्ध आठ नागोंके चित्र खेंचे। मंडलके वाहरके चतुष्कोणकी, ईशानादि चारों विदिशाओंके कोनोंपर चार कलश रक्खे । कलशोंके मुखोंको नवीन पत्तोंसे, पुष्पोंसे, मालाओंसे, वस्त्रोंसे तथा दर्पणोंसे सजावे । चौको. णकी चारों दिशाओंके चारों दरवाजोंपर चूर्णके चार चित्र खेंचे। पूर्व दिशाके द्वारपर हाथीका चित्र, दक्षिण-द्वारपर घोड़ेका चित्र, पश्चिम द्वारपर पुनः हाथीका चित्र और उत्तर-द्वारपर पूंछ, सींग, लिंग, कर्ण आदिको स्पष्टतासहित बैलका चित्र खेंचे । नैनत्य और आग्नेय दिशा तरफके कोणोंपर कन्याके पिताके अभीष्ट प्रताप आदि गोत्र लिखे तथा वायव्य और ईशान दिशामें वरके अभीष्ट प्रताप आदि गोत्र लिखे। वहीं मंडलपर जिनेन्द्र पूजाके योग्य उत्तम उत्तम द्रव्य रक्खे और अक्रुः रौके पात्र और अन्य शुभ वस्तुओंसे गुरूपदेशके अनुसार मंडलको अच्छी तरह सजावे | जब संध्याके