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३३१ करनेवालोंमें शान्ति हो । जो निरंतर तपश्चरण की भावना करते हैं- बड़े बड़े महोपवासादि तप करते हैं उनमें शान्ति हो । कपायोंके जीतनेसे जिनका वैभव बढ़ा चढ़ा है उनमें शान्ति हो । संयमरूपी रसास्वादन से तृप्त पुरुष सदा जीते जागते रहें । शुद्ध और स्वाभाविक उदयसे प्रसन्न पुष समृद्धिको प्राप्त होवें । जिन्होंने सिद्धि-सुखकी संगतिमें संकल्प कर लिया है वे सिद्धिको प्राप्त होवें । जिनेंद्रकी आशा तीन जगत में बेरोकटोक विचरण करे | तुम्हारी शान्ति हो, तुम्हारा शिव हो, तुम्हारी निरंतर जय हो, तुम्हें आरोग्य प्राप्त हो, तुम्हारी पुष्टि-समृद्धि हो, तुम्हारा कल्याण हो, सुखकी वृद्धि हो, तुम दीर्घायु होओ, तुम्हारे निरंतर कुल, गोत्र और धन बना रहे ॥ १४१-१४४ ॥ शिरस्यक्षतपुञ्जस्य धारणं शुद्धमानसम् । नमस्कारोऽग्निदेवस्य सूनों प्रणमनं परम् ॥ १४५ ॥ सभायाः पूजनं वस्त्रैस्ताम्बूला धैर्विशेषतः । सदा गुणवता चापि ध्रुवतारा निरीक्षणम् ॥ १४६ ॥ गृहस्याभ्यन्तरे घण्टाद्वयस्याप्यवलोकनम् ।
तथा बन्धुजनैः सार्धं पयः प्रभृति भोजनम् ॥ १४७ ॥
आशीर्वाद हो चुकने के अनन्तर विवाह - दीक्षामें नियुक्त वे वधू-वर अपने मस्तकपर अक्षत धारण करें, मनको नाना संकल्प-विकल्पोंसे रहित शुद्ध करें । उपाध्यायको नमस्कार करें ! अभिदेवको सिर झुकाकर प्रणाम करें। वस्त्र तांबूल आदि द्वारा उपस्थित सभ्योंका सत्कार करें। ध्रुवताराका निरीक्षण करें | घरके भीतर टॅगी हुई दो घंटाएं देखें। और बंधुजनोंके साथ साथ दुग्ध आदि भोजन करें ।। १४५ - १४७ ॥
ततः प्रभृति नित्यं च प्रभाते पौष्टिक मतम् ।
निशीथे शान्तिहोमेऽह्नि चतुर्थे नागतर्पणम् ॥ १४८ ॥ तदग्रे च प्रभाते च गृहमण्डपयोः पृथक् । सम्मार्जनं च कर्तव्यं मृत्स्ना गोमयलेपनम् ॥ १४९ ॥ पौष्टिकहोमान्तरके सकलैः सह बन्धुभियुतोष्णीषैः ।
कार्यं हि पंक्तिभोजनमप्यत एवात्र ताम्बूलम् ॥ १५० ॥
उस दिन से लेकर प्रतिदिन प्रातःकाल के समय पौष्टिक कर्म करे । रात्रिमें शान्ति होम करे !
चौथे दिन नागतर्पण करे । उसके दूसरे दिन घर और मंडपको झाडू बुहारी लगाकर साफ करावे । मिट्टी और गोवरसे लिपवावे । पौष्टिक होम हो चुकने के पश्चात् सम्पूर्ण बंधुजनोंके साथ साथ वर.. नंगे सिर पंक्ति-भोजन करे । पश्चात् सबको पान-सुपारी आदि देवे ॥ १४८ - १५० ॥ विशाले मनोज्ञे समे भूमिभागे, विवाहस्य सन्मण्डपे शोभमाने । बृहत्कर्णिकं चाष्टपत्रं सुपद्मं सरःसंयुतं वा चतुर्द्वारयुक्तम् ।। १५१ ।। चतुर्भिस्तथाऽरुपेतं विशेषाद्वरैः पञ्चचूर्णैर्विरच्यैव साधु !
दधन्मण्डयन्पञ्च वा कर्णिकान्तः स्थितः पालिका मूर्ध्नि तस्या विचित्रम् ॥ १५२ ॥