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सोमसेनभट्टारकविरचित
चतुर्थीमध्ये कन्या चेद्भवेत्रे रजस्वला । रामशुचिवमा चतुर्थेति शुद्धघात ॥ १०८ ॥ कुर्वीत प्राविधोयते ।
..पूर्ण न
'जिनं सम्पूजयद्भक्त्या पुनमो विधायते ।। १०९ ।।
वाग्दान प्रदान, वरण और पाणिपीड़न, इन चार क्रियामं चौथी पाणिपीड़न क्रियामें अथवा चौथी अर्थात् भीतर की सातवीं भांवरक पहले यादे कन्या रजस्वला हो जाय तो वह तीन
तक अशुद्ध रहती है और चौथे दिन शुद्ध होती है । तबतक विवाहसंबंधी पूजा और होम न किया जाय, तथा प्रायश्चित्त ग्रहण करें। चौथे दिन शुद्ध हो जानेके बाद भक्तिभावसे जिनपूजा.. और होम फिर प्रारंभ किया जाय || १०८ - १०९ ॥
इति प्रसंग | द्वेदिकादि लक्षणम् । अर्थात् इस तरह प्रसंग पाकर वेदीका लक्षण कहा । उभयोः पार्श्वयोः काण्डसंयुक्तं पुचपञ्चकम् ।
शाल्यादिपञ्चधान्यानां यावारकस्य सन्निधौ ॥ ११० ॥
वेदीके दोनों तरफ छिलके सहित शाली आदि पांच धान्यके पांच पांच पुंज ( मुठी ) रखे ॥ ११०
पूर्वोक्तराश्यर्मध्ये च तथोपरि सुवस्तुकम् ।
परं प्रसार्य ते तत्र चानयेद्वरकन्यके ॥ १११ ॥
पूर्वोक्त दोनों धान्यके ढेरोंके बीचमै एक पर्दा तानकर वहांपर वर और कन्याको लावें ॥ १११ ॥ पूर्व दिक्ताण्डुलराशौ प्रत्यङ्मुखा हि कन्यका । प्राङ्मुखः पश्चिमेराशाववतिष्ठति सद्वरः ॥ ११२ ॥ गुर्वादिसज्जनैः स्तोत्रं पठनीयं जिनस्य वै । मङ्गलाष्टकमित्यादि कल्याणसुखदायकम् ॥ ११३ ॥ कन्याया वदनं पश्येरो वरं च कन्यका । शुभे लग्ने सतां मध्ये सुखप्रीतिमवृद्धये ॥ ११४ ॥ सगुडान् जीरकानास्ये ललाटे चन्दनाक्षतान् । कण्ठे मालां क्षिपेत्तस्याः साऽपि तस्य तदा तथा ॥ ११५ ॥
. पूर्व दिशा की ओरके चावलोंकी राशिपर पश्चिमकी तरफ मुख करके कन्या खड़ी की जाय । और पश्चिम दिशाकी राशिपर पूर्व की ओर मुखकर वर खड़ा किया जाय। इस तरह दोनोंको खड़ा कर आचार्य आदि सज्जन पुरुष वर-कन्याको सुखी करनेवाले मंगलाष्टक आदि जिनस्तोत्र पढ़ें । बाद उस पढ़ेंको हटाकर वर कन्याका मुख देखे और कन्या वरका मुख देखे । यह क्रिया शुभलग्नमें सजनोंके बीच सुख और प्रीति बढ़ने के लिए की जाती है । इसके बाद वर कन्याके मुखमें जीरा और गुड़ दे, ललाटपर चंदन और अक्षत लगावे और गले में माला पहनावे | तथा कन्या भी वरके मुखमें गुड़ और जीरा देवे, ललाटपर चन्दन और अक्षत लगावे । तथा गलेमें मांला डाडे ॥ ११२-११५ ॥
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