Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 351
________________ ३१ई सोमसेनभट्टारकविरचित जिसकी नाभि गहरी हो, जिसके शरीरके रोम स्वर्ण जैसे रंगके हों, और जिसके पेट में त्रिवली हो तो वह नारी या कन्या सुखी है या होगी ॥ २९ ॥ रक्तजिव्हा सुखा नारी मुसला च धनक्षया । श्वेता च जनयेन्मृत्युं कृष्णा च कलहमिया ॥ ३० ॥ लाल जीभवाली स्त्री सुखी होती है, मूसलके आकार की जीभवाली धनका क्षय करनेवाली होती है, सफेद जीभवाली पतिकी मृत्यु करनेवाली होती है और काली जीभवाली कलहकारिणी होती है ॥ ३० ॥ श्वेतेन तालुना दासी दुःशीला कृष्णतालुना । हरितेन मह पीडा रक्ततालुः सुशोभना ॥ ३१ ॥ सफेद तालुवाली दासी होती है, काले तालुवाली दुष्ट स्वभाववालो या व्यभिचारिणी होती द्दे, हरे तालुवाली भारी रोगिणी होती है और लाल ताडवाली अच्छे लक्षणोंवाली होती है ॥३१॥ ललाट त्र्यङ्गुलं यस्याः शिरोरोमविवर्जितम् । निर्मलं च समं दीर्घमायुर्लक्ष्मीसुखप्रदम् ॥ ३२ ॥ जिसका ललाट रोमरहित हो, तीन अंगुल चौड़ा हो, स्वच्छ हो, समान हो, वह कन्या दीर्घायु, सम्पत्तिवाली और भरपूर सूख देनेवाली हैं ॥ ३२ ॥ अतिप्रचण्डा प्रबला कपालिनी, विवादकर्त्री स्वयमर्थचोरिणी ॥ आक्रन्दिनी सप्तगृह प्रवेशिनी, त्येजच्च भार्या दशपुत्रपुत्रिणीम् ॥ ३३ ॥ जो भारी प्रचंडा हो, बलवती हो, जिसका कपाल भारी मोटा हो, विवाद करनेवाली हो, घरमें से वस्तुएँ चुराती हो, जोर जोरसे चिल्लानेवाली हो और सात घरमें जाती हो- घर घरमें डोलती फिरती हो, ऐसी कन्याको, यदि वह आगे चलकर दश पुत्र-पुत्रीवाली भी क्यों न हो, तौ भी छोड़ देनी चाहिए ॥ ३३ ॥ पिंगाक्षी कूपगल्ला परपुरुषरता श्यामले चोष्ठजिह्वे लम्बोष्ठी लम्बदन्ता मविरलदशना स्थूलजंघोर्ध्वकेशी । गृधाक्षी वृत्तपृष्ठिर्गुरुपृथुजठरा रोमशा सर्वगात्रे सा कन्या वर्जनीया सुखधनरहिता निन्द्यशीला प्रदिष्टा ॥ ३४ ॥ जिसके नेत्र पीले हों, गालोंपर खड्डे पड़ते हों, परपुरुषोंके साथ रमण करती हो, ओठ और जीभ जिसकी काली हो, लंबे ओठोंवाली हों, दांत भी जिसके लंबे हों, दूर-दूर हों, पिण्डी मोटी हो, केश ऊपरको उठे हुए हों, गीध जैसी आंखें हों, जिसकी पीठ गोल-कुबड़ी हो, पेट मोटा और चौड़ा हो, सारे शरीरमें रोमावली हों, ऐसी कन्याका दूरसे ही त्याग करना चाहिए। क्योंकि ऐसी कन्या सुख और धन से रहित निद्य स्वभाववाली कही गई है | ||३४|| विवाह के योग्य कन्या । इत्थं लक्षणसंयुक्तां षडष्टराशिवर्जिताम् । - वर्णविरुद्धसन्त्यक्तां सुभगां कन्यकां वरेत् ॥ ३५ ॥

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