Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 337
________________ २९८ सोमसेनभट्टारकविरचितं 'अनर्थदण्डके अतीचार | कन्दर्प कौत्कुच्यं मौखर्यगतिसाधनं पञ्च । असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरतेः ॥ ९९ ॥ हास्यमिश्रित चकारादि वचन बोलना, कायके द्वारा कुचेष्टा करना, वृथा चकवाद करना, बिना प्रयोजन भोगोपभोगकी सामग्री बढ़ाना, और बिना विचारे किसी कार्यको करना, ये पांच अनर्थं दंडविरति व्रतके अतीचार हैं । अनर्थदंडसे विरक्त पुरुपको इनका त्याग करना चा हिए ॥ ९९ ॥ भोगोपभोगपरिमाण व्रत अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अर्थवतामप्यवधौ रागरतीनां तनुकृतये ॥ १०० ॥ राग-भाव को घटानेके लिए परिग्रहपरिमाण, व्रतमें परिमाण किये हुए विषयों में से भी प्रयोजनभूत, पंचेंद्रियों के विषयोंका परिमाण करना भोगोपभोगपरिमाण व्रत हैं || १०० ॥ भोग और उपभोगका लक्षण | भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पञ्चेन्द्रियो विषयः ॥ १०१ ॥ भोजन, वस्त्र आदि पंचेन्द्रियसम्बंधी विषय, जो एक वार भोगकर त्याग देने योग्य हैं उन्हें मोग, और जो भोगकर फिर भोगने में आते हैं उन्हें उपभोग कहते हैं ॥ १०१ ॥ भोगोपभोग परिमाण व्रतमें विशेष त्याग । सहतिपरिहारार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥ १०२ ॥ जिन भगवानकी शरण ग्रहण करनेवाले पुरुषोंको त्रसजीवोंकी हिंसाका परिहार करनेके लिए. मधु और मांसका तथा प्रमाद दूर करनेके लिए मद्यका त्याग करना चाहिए ॥ १०२ ॥ अल्पफल बहुविधातान्मूलकमार्द्राणि शृङ्गवेराणि । नवनीतनिम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् ॥ १०३ ॥ जिनके भक्षण करनेसे जिह्वा इन्द्रियको फल - कम मिलता हो और जीवोंका घात अधिक होता हो ऐसे सचित्त अदरख, मूली, गाजर, तथा मक्खन, नीम और केतकी के फूल, इस तरहकी चीजों का भी त्याग करना चाहिए । भावार्थ - मद्य, मांसादिकोंका त्याग यद्यपि अष्ट मूल्यगुणों के समय हो चुका था, तथापि फिर यहां भोगोपभोग व्रतमें भी इनका त्याग कराया है । इसलिए यहां इनके. त्यागसे अतिचारोंका त्याग समझना चाहिए । अथवा पुनः पुनः त्यागका जो कथन किया जाता है। वह व्रतशुद्धि तथा त्याग करनेवालेको स्मृति बनी रहे इसलिए किया जाता है ॥ १०३ ॥ पंच उंदुबर-त्यागका कारण । सूक्ष्माः स्थूलास्तथा जीवाः सन्त्युदुम्बरमध्यगाः । तन्निमित्तं जिनोद्दिष्टं पञ्चोदुम्बरवर्जनम् ॥ १०४ ॥ .

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