Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 339
________________ सोमसेनभट्टारकविरचित देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, और वैयावृत, ये चार शिक्षावत कहे कालके परिमाणसे प्रतिदिन बड़े बड़े देशोंके कम करनेको देशावकाशिक व्रत कहते हैं ॥ दशावका शिकव्रतकी मर्यादा । गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च । देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः ॥ १११ ॥ ३०० सामायिक व्रत । आयमुक्ति मुक्तं पञ्चाघानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥ ११२ ॥ तपोवृद्ध गणवर दि आचार्य देशावकाशिक व्रतकी सीमा अपना घर, गली, ग्राम, क्षेत्र, नदी, अरण्य और योजन तककी बताते हैं ॥ १११ ॥ s wer सामायिक करनेवाले बड़े बड़े ऋषीश्वर मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा सब जगह किसी नियत समय पर्यन्त पंच पापके त्यागको सामायिक व्रत कहते हैं । इसे दी सामान्यतया सामायिक प्रतिमा समझना चाहिए ॥ ११२ ॥ ११३ ॥ गये है । १० ॥ प्रोषधोपवास | पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥ अष्टमी और चतुदर्शी पर्वके दिन, प्रशस्त भावोंसे चार प्रकारके आहारके त्यागको प्रोपघोपवास जानना चाहिए । यही सामान्यतया प्रोपधोपवास नामकी चौथी प्रतिमा है ॥ ११३ ॥ वैयावृत्य | दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारांपक्रियमगृहाय विभवेन ॥ ११४ ॥ सम्यग्दर्शनादि गुणोंके खजाने, द्रव्य-भाव-घर-रहित तपोधन महामुनियोंको, धर्मके निमित्त, प्रत्युपकारकी किसी तरहकी इच्छा न रखते हुए, भारी उत्साह के साथ दान देना वैयावृत्त्य है ॥ ११४ ॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमनाम् ॥ ११५ ॥ दानविधि | नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । - अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ॥ ११६ ॥ गुणोंमें प्रीति धारण कर, उन संयमी महामुनियों की हर प्रकारकी आपत्तिको दूर करना. उनके चरणों को दबाना अर्थात् पांव-दाबना, तथा और भी जितनाभर उपकार अपनेसे बन सके करना, वैयावृत्य है ॥ ११५ ॥

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