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सोमसेनभट्टारकविरचित
पांच अणुव्रत पालनेके फल । पञ्चाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति मुरलोकम् ।
यत्रावधिरष्टगुणा विद्यन्ते कामदा नित्यम् ॥ ८७ ॥ अतीचार रहित पालन की हुई ये पांच अणुव्रतरूपी निधियां स्वर्गलोकको फलती है, जहांपर अवधिज्ञान प्राप्त होता है और अच्छे मनोरथीको पूर्ण करनेवाली अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥ ८७ ॥
तीन गुणव्रत। दिव्रतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् ।
अनुबंहणाद्गुणानामाख्यन्ति गुणवतान्यायाः ।। ८८ ॥ दिन्नत, अनर्थदंड व्रत और भोगोपभोग-परिमाण व्रत, ये तीनों मद्यत्याग आदि आठ मूलगुणोंकी रक्षा करते हैं उनको निर्मल बनाते हैं, इसलिए गणधरादि महापुरुषोंने इन्हें गुणवत कहा है ॥ ८८ ॥
दिग्बतका स्वरूप। दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिन यास्यामि ।
इति सङ्कल्पो दिवतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्व ॥ ८९ ॥ सूक्ष्म पापोंकी निवृत्ति के लिए मरणपर्यंत पूर्व आदि दशों दिशाओंमें अमुक परिमाणके बाहर मैं नहीं जाऊंगा, इस तरहके नियम करलेनेको दिग्वत कहते हैं ॥ ८९ ॥
मकराकरसरिदटवीगिरिजनपदयोजनानि मर्यादाम् ।
पाहुर्दिशां दशानां पतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥ ९० ।। पूर्व आदि दशों दिशाओंके त्याग करनेमें प्रसिद्ध २ समुद्र, नदी, अटवी, पर्वत, देश और योजन तककी मर्यादा-सीमा कही है । भावार्थ---अमुक अमुक दिशामें अमुक अमुक समुद्रसे, नदीसे, अटवीसे, पर्वतसे, देशसे या इतने योजनोंसे परे (आगे) नहीं जाऊंगा, इस तरह पर्वता. दिकों तककी सीमा की जाती है ॥ ९० ॥
दिग्विरति व्रतके पांच अतीचार। अधिस्तात्तिर्यग्व्यतिपाताः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् ।
विस्मरणं दिग्विरतरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ॥ ९१ ॥ अज्ञान अथवा प्रमादवश ऊपरकी सीमाका उल्लंघन करना, नीचेकी सीमाका उलंघन करना, तिर्यगरूपसे सीमाका उल्लंघन करना, की हुई मर्यादासे कुछ क्षेत्र बढ़ा लेना, और मर्यादा की हुई सीमाका स्मरण न रखना, ये पांच दिग्विरति व्रतके अतीचार हैं । दिग्विरति व्रतीको इन अतीचारोका त्याग करना चाहिए ॥ ९१ ॥
अनर्थदण्डविरति व्रतका स्वरूप । अभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थकेभ्यः संपापयोगेभ्यः । विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुबेतधरानण्यः ।। ९२ ॥....