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सोमसेनभट्टारकविरचित___जो आठ मूलगूणोंका धारी है, सात व्यसनोंका त्यागी है और सद्गुरुके वचनोंमें आसक्त है, वह सम्यकदृष्टि कहा जाता है ।। ६९ ॥
___ आठ मूलगुणों के नाम। नादी अधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् ।
मद्यमांसमधून्युजपंचक्षीरफलानि च ॥ ६९ ॥ गृहस्णको सबसे पहले जिन-आजाका श्रद्धान करते हुए हिंसाको त्यागनेके लिए मद्य, मांस, मधु और पांच क्षीरफलाका त्याग करना चाहिए | इनका स्वरूप पहले लिख आये हैं ।। ६९ ॥
अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा । '
फलस्थाने स्मरेत् घृतं मधुस्थान इहैव च ॥ ७० ॥ ___ भगवत्सोमदेव सूरि, अमृतचंद्र सूरि आदि आचार्य इन ऊपर कहे आठोंको मूलगण कहते हैं। भगवान समन्तभद्राचार्य पांच क्षीरफलोंके स्थानमें स्थूल-वधादिके त्यागको अर्थात् पांत्र अणुव्रतोंका धारण और तीन मकारके त्यागको अष्ट मूलगुण कहते हैं। और भगवजिनसेनाचार्य, समन्तभद्रस्वामीके बताये हुए अष्ट मूलगुणोंमें मधुके स्थानमें जूएके त्यागको अर्थात् पांच अणुव्रतोंके भारण, मद्यके त्याग, मांसके त्याग और जुआ खेलनेके त्यागको अष्ट मूलगुण कहते हैं। तथा 11७०॥
मघपलमधुनिशाशनपञ्चफलीविरतिपश्चाप्तनुती ।
जीवदया जलगालनमिति च कचिदष्टमूलगुणाः ॥ ७१ ॥ किन्हीं किन्हीं ग्रन्थों में मद्यविरति', मांसविरति', मधुविरति', रात्रिभोजन विरति, पंच--क्षीरफलोंका त्यागे, पांच आतोंर्का नुति, जीवदाँ, और जल छानकर पीर्ना, ये आठ मूलगुण बताये हैं ॥ ७१ ॥
आचार्योंके बताये हुए इन मूलगुणोंमें कोई विरोध नहीं है । सबका उद्देश वही हिंसाके त्यागका है । जवकि गृहस्थोंका चारित्र देश-चारित्र है, और देशके अनेक भाग होते हैं, तब मूलगुणोंमें अनेक भेदोंका जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट-रूप हो जाना आश्चर्यकारक नहीं है । हां, मुनियोंका चारित्र सकलन्चारित्र है । उनके वाह्य मूल चारित्रमें कुछ भेद नहीं होता। गिरत्तोंके चारित्रमें अनेक भेद होते हैं । अन्यथा वह देश-चारित्र ही नहीं हो सकता । सबमें उत्तरोत्तर हिंसात्यागकी प्रकर्षता है । वह प्रकर्षता मुनियोंके चारित्रमें अन्त्य दर्जेको पहुंच जाती है । इसलिये आचार्य बचनोंमें कुछ भी विरोध नहीं समझना चाहिए।
गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षावतात्मकं चरणम् ।
पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातम् ॥ ७२ ॥ गिरस्तोंका चरित्र तीन प्रकारका है-अणुव्रत, गुणवत और शिक्षाबत । ये क्रमसे पांच, तीन और चार भेदरूप हैं !! ७२ ॥
. पांच अणुव्रतोंका स्वरूप । प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूच्छभ्यिः । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति ॥ ७३ ॥