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वणिकाचार।
निष्कांक्षित अंगका लक्षण । कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये ।
पापवीजे सुखेऽनास्था श्रद्धाऽनाकाङ्क्षणा स्मृता ॥ २१ ॥ जो कोंके उदयके आधीन है, अन्तसहित है, बीचवीचमें दुःखोंके उदयसे मिला हुआ है, और पापका कारण है, ऐसे सांसारिक सुखमें अनित्यरूप श्रद्धान करना-उसकी चाह न करना निष्कांक्षित अंग है ॥ २१ ॥
निर्विचिकित्सित अंगका लक्षण । स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥ २२ ॥ स्वभावसे अपवित्र, किन्तु रत्नत्रयके द्वारा पवित्र हुए शरीरमें ग्लानिरहित होकर गुणोंमें प्रीति करना निर्विचिकित्सित अंग माना गया है ॥ २२ ॥
अमूढदृष्टि अंगका लक्षण । कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः ।
असम्पृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढ़ा दृष्टिरुच्यते ॥ २३ ॥ दुःखोंके कारण मिथ्या मतोंमें, और उन मिथ्या मतोंमें स्थित मिथ्यादृष्टि मनुष्यों में मनसे सम्मत न होना, कायसे सराहना न करना और वचनोंसे प्रशंसा न करना अमूढदृष्टि अंग कहा जाता है॥२३॥
उपगृहुन अंगका स्वरूप। स्वयंशुद्धस्य मार्गस्य वालाशक्तजनाश्रयाम् ।
वाच्यतां यत्समाजेन्ति तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥ २४॥ स्वतः-स्वभावसे निर्दीप जैनधर्मसे अश-धर्मसे पूरी पूरी वाकफियत न रखनेवाले और उसके पालन करनेसे असमर्थ मनुष्योंके जरिये उत्पन्न हुई निन्दाके दूर करनेको उपगृहन अंग कहते हैं ॥ २४ ॥
स्थितीकरणका लक्षण। दर्शनाचरणाद्वाऽपि चलतां धर्मवत्सलैः ।
मत्युपस्थापनं माज्ञैः स्थितीकरणमुच्यते ॥ २५॥ सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्चारित्रसे च्युत ( भ्रष्ट) होनेवाले मनुष्योंको धर्ममें प्रेम रखनेवाले पुरुपोंद्वारा फिरसे उसीमें स्थिर कर देनेको विद्वान पुरुप स्थितीकरण अंग कहते हैं ॥ २५ ॥
वात्सल्य अंगका लक्षण । जैनधर्मयुतान् भव्यान् रोगचिन्तादिपीडितान् ।
वैयारत्यं सदा कुर्यात्तद्वात्सल्यं निगद्यते ॥ २६ ॥ रोग, चिन्ता आदिसे पीड़ित और जैनधर्मसे युक्त भव्य पुरुषोंके वैयावृत्य करनेको वात्सल्य अंग कहते हैं ॥ २६ ॥
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