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सोमसेनभद्रारकविरचिंत
शुओं, तुर्षा, गेगें, भर्य, रागे, देष, मरणं, स्वेद (पसीना ), खेदं, अरति', चिन्ता, जन्म, जरी (बुढ़ापा), विस्मय (आर्य), मर्दै (गर्व), निद्री, विषाद और मोई-इन अठारह दोपोंसे रहित वीतराग दयाल जिनदेन, जो प्राणियोंका उत्कृष्ट देवता है, सब संसारी जीवोंकी पापसे रक्षा करें ॥ १६॥
सचे शास्त्रका स्वरूप। पूर्वापराविरुद्धं यदाप्लोदिष्टं सुबृद्धिमत् ।
यथार्थवाचकं शास्त्रं तदध्येयं शिवाप्तये ॥ १७॥ जो पूर्वापरसे अविरुद्ध है, सर्वज्ञ-वीतराग-परम-हितोपदेशीका कहा हुआ है, यथार्थ उपदेशका करनेवाला है, मिथ्या बुद्धिको नष्ट कर सुबुद्धिका देनेवाला है,वह शास्त्र है। ऐसे ही शास्त्रका मोक्षको प्राप्तिके लिए अध्ययन करना चाहिए । भावार्थ-जो इन लक्षणोंसे युक्त है वह आगम है। इसके विपरीत जो संसारमें रुलाने (भटकाने) वाला है, विषयोंका उपदेश करनेवाला है, वह आगमामास है। जो आगमसरीखा दिखता हो, परंतु आगमके उक्त लक्षणसे रहित हो, उसे आगमाभास कहते हैं। धारातीय आचार्य एकदेश-वीतराग हैं, आप्त हैं, संसारी-जीवोंका हित चाहनेवाले हैं, और वास्तविक उपदेशके करनेवाले हैं, इसलिए उनके बनाये हुए आगमका भी अपने कल्याणके निमित्त भक्ति-पूर्वक अध्ययन करना चाहिए ॥ १७ ॥
गुरुका लक्षण। विषयाशावशातीतो निरारम्भोआरिग्रहः ।
झानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१८॥ जो पांच इन्द्रियों के भले-बुरे विषयोंकी वासनाके वशसे रहित हैं, चौवांस प्रकारके परिग्रहोंसे रहित हैं, कृषि आदि आरंभसे पराङ्मुख हैं, और ज्ञान तथा तपमें रात-दिन लीन रहते हैं, वे गुरु प्रशंसनीय हैं-ऐसे तपस्वी गुरु हो सकते हैं ॥ १८ ॥
सम्यग्दृष्टिका लक्षण। एतेषां निश्चयो यस्य निःशङ्कत्वेन वर्तते ।
सम्यग्दृष्टिः स विज्ञेयः शङ्कायष्टकवर्जितः ॥ १९॥ इस प्रकारके सच्चे देव, गुरु, शास्त्रका जिसके हृदयमें निःशंक निश्चय है, उसे शकादि आठ दोषों-रहित सम्यग्दीष्ट समझना । भावार्थ:-शंकादि आठ दोषों-रहित सभे देव, गुरु और शास्त्रका भदान करना सम्यग्दर्शन है ॥ १९ ॥
निःशंकित अंगका लक्षण। देवे मंत्रे गुरौ शास्त्रे कचिदतिशयो न चेत् ।
फल्पदोषान कर्तव्यः संशयः शुद्धदृष्टिभिः ॥ २० ॥ देव, शास्त्र, गुरु और इनके बताये हुए मंत्रोंमें अतिशय है या नहीं-ऐसे व्यर्थके दोषोंका सावन कर शुद्ध सम्यग्दृष्टियोंको आप्त आदिमें संशय नहीं करना चाहिए । भावार्य-आप्त आदि में अतिशय है वा नहीं-इस तरह संशय न करना निःशंकित अंग है ॥२०॥