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सोमसेनमट्टारकविरचितहे भव्य-वर्ग ! सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारे कल्याणको करनेवाले श्रीजिनेन्द्रदेवके कहे हुए धर्मको प्रतिपादन करता हूं। संसारी प्राणियोंको सबसे पहिले मिथ्यात्वका त्यागकर सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिए; और पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-इन बारह व्रताका पालन करना चाहिए ॥ ७ ॥ उक्तंच-यही ग्रन्थान्तरोंमें कहा है।
मिच्छत्तं बेदंतो जीवो विवरीयदसणो होदि ।
ण य धम्मं रोचेदि हु मुहुरं पि जहा जुरिदो ॥ ८॥ मिथ्यात्वको अनुभव करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धान करनेवाला होता है । उसे समीचीन धर्म नहीं रुचता-वह समीचीन धर्मसे भारी द्वेष करता है । जैसे रोगीको मीठा रस भी कछुआ लगता है ॥ ८॥
नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः ।
पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ॥९॥ जिनकी चेतना मिथ्यात्वसे ग्रसित है वे मनुष्य होकर भी पशुओंके समान आचरण करते हैं। और जिनकी चेतना सम्यक्त्वसे व्यक्त है वे पशु होकर भी मनुष्योंके समान आचरण करते हैं ॥९॥
मिथ्यात्वके तीन भेद । । केषांचिदन्धतमसायते गृहीतं ग्रहायतेऽन्येषाम् ।
मिथ्यात्वमिह गृहीतं शल्यति सांशयिकं परेपाम् ॥ १० ॥ मिथ्यात्वके तीन भेद हैं-एक अगृहीत, दूसरा गृहीत और तीसरा सांशयिक । दूसरेके उपदेशके विना अनादि परंपरासे चले आये भात्माके अतत्व श्रद्धानरूप परिणामोंको अगृहीत-मिथ्यात्व कहते हैं । ऐसा मिथ्यात्व किन्हीं किन्हीं एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञो-पंचेन्द्रिय जीवोंतक गाढ़ अन्धकारकासा काम देता है-यह मिथ्यात्व उन्हें कभी भी सत्तत्वोंका श्रद्धान नहीं होने देता । दूसरेके उप. देशसे अतत्वोंमें श्रद्धान हो उसे गृहोत-मिथ्यात्व कहते हैं। ऐसा मिथ्यात्व संज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवोंको चढ़े हुए भूतोंकी तरह उन्मत्त बना देता है। सम्यग्दर्शनादि मोक्षके कारण हैं या नहीं-ऐसी दोलायमान प्रतीतिका नाम संशय है। यह संशय-मिथ्यात्व किन्ही किन्हीं श्वेतांबरीय मतानुयायी इन्द्रचन्द्रनागेन्द्र गच्छके स्वामी इन्द्राचार्य आदिकोंके हृदयमें शल्य-वाणके समान चुभतारहता है।॥१०॥
कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्म लघुकर्मतयाऽद्विषन् ।
भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्ताविपर्ययात् ॥ ११ ॥ जिसके सच्चे धर्मसे द्वेष करनेका कारण मिथ्यात्व-कर्म हलका पड़ गया है. वह. मिथ्या-धर्ममें आसक्त होकर भी प्रमाणसे अबाधित सद्धर्मसे द्वेष-भाव नहीं रखता है । ऐसे पुरुषको भद्र-मिथ्या. दृष्टि कहते हैं । यह भद्र-मिध्यादृष्टि आगामी कालमें सम्यक्त्व-गुणका पात्र होनेके कारण जैनधर्मसम्बन्धी उपदेशके योग्य है । और जो अभद्र है-जो मिथ्यात्व-कर्मका तीन उदय होनेके कारण जैनधर्मसे प्रचुर द्वेष करता है, वह उपदेशके योग्य नहीं है ॥ ११ ॥: ..