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सोमसेनभट्टारकविरचित -
शुद्ध नहीं होते । और काँसा, तांबा, छोहा, पीतल वगैरहके बर्तनोंमें दूसरे विजातिने जीमा हो तो अनि डालकर माँज लेनेसे शुद्ध होजाते हैं ॥ १०९-११० ॥
यद्भाजने सुरामांसविण्मूत्रश्लेष्ममाक्षिकम् ।
क्षिप्तं ग्राह्यं न तद्भाण्डमन्यायः श्रावकोत्तमैः ॥ ११ ॥
जिस बर्तन में शराब, मांस, ग्रहत, विष्टा, मूत्र, खँकार आदि रख दिये गये हों उस वर्तन को उत्तम श्रावक-गण कभी काम में न लें। ऐसे बर्तनोंको काममें लेना एक प्रकारका अन्याय है ॥ ११ ॥ चालनी वस्त्रं शूर्प च मुसलं घटयन्त्रकम् ।
स्वतोऽन्यैः स्पर्शितं शुद्धं जायते क्षालनात्परम् ॥ ११२ ॥
तो
चालनी, वस्त्र, सूप, मूसल और चक्की, ये वस्तुएं अपने सिवा अन्य बिजातिसे हू जांय, जलसे घोलेनेसे शुद्ध हो जाती हैं ॥ ११२ ॥
स्वप्ने तु येन यदुक्तं तत्त्याज्यं दिवसत्रयम् ।
म मांसं यदा भुके तदोपवासकद्वयम् ॥ ११३ ॥
सुपने में कोई भी चीज खाली हो तो उसका तीन दिनतक त्याग कर दे-उस चीनको तीन दिनतक न खावे । मद्य-मांस यदि सुपने में खाये हों तो दो उपवास करे ॥ ११३ ॥ ब्रह्मचर्यस्य भंगे तु निद्रार्या परवशतः ।
सहसैकं जपे ज्ञापमेकभक्तत्रयं भवेत् ॥ ११४ ॥
निद्रामें परवश ब्रह्मचर्यका भंग होगया हो, तो एक हजार जाप जपे और तीन एकाशन करे । मात्रा तथा भगिन्या च समं संयोग आगते ।
उपवासद्वयं स्वप्ने सहस्रैकं जपोत्तमम् ॥ ११५ ॥
सुपने में माता तथा बहिन के साथ संयोग हुआ हो, तो दो उपवास करे और एक हजार जाप जपे । मिथ्यादृशां गृहे रात्रौ भुक्तं वा शुद्रसद्मनि ।
तदोपवासाः पञ्च स्युर्जाप्यं तु द्विसहस्रकम् ॥ ११६ ॥
मिथ्यादृष्टियों के घरपर अथवा शूद्र के घरपर रात्रिमें भोजन किया हो तो पांच उपवास करे और दो हजार जाप जपे ॥ ११६ ॥
इत्येवमल्पशः प्रोक्तः प्रायश्चित्तविधिः स्फुटम् ।
अन्यो विस्तरतो ज्ञेयः शास्त्रेष्वन्येषु भूरिषु ॥ ११७ ॥
..इस तरह यह थोड़ीसी प्रायश्चित्त विधि बताई गई है। बाकी विस्तार से जानना हो, तो अन्य शास्त्रोंसे जानमा ॥ ११७ ॥
इत्थं मौञ्जीबन्धनं पालनीयं । प्रायश्चित्तं वर्जयेत्को नुं पापः ।
धर्म्य कर्म मायशों रक्षणीयं । पुण्याश्लिष्टैः सोमसेनैर्मुनीन्द्रैः ॥ ११८ ॥ इस तरह मौजीबंधन व्रतका पालन करना चाहिए और पातक होजानेपर प्रायश्चित ग्रहण करना चाहिए तथा पुण्य चाहनेवाले सोमसेन मुनीको धार्मिक कृत्योंका रक्षण करना चाहिए । सारांश पुण्यार्थी लोगोंको धर्मकृत्य करना उचित है ॥ ११८ ॥